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________________ गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं ३१३ ५३६. एत्थ उवसामगो ति वुत्ते दंसणमोहणीयउवसामओ घेत्तव्यो, मिच्छत्तेणाहियारादो । जइ एवमुवसमसम्माइहि त्ति वत्तव्वं, अण्णहा उवसामणावावदावस्थाए चेव गहणप्पसंगादो ? ण एस दोसो, पाचओ भुजइ' ति णिव्वावारावत्थाए वि किरियाणिमित्तववएसुवलंभादो। छसु आवलियासु सेसासु आसाणं गओ ति पदेण वा उवसंतदंसणमोहणीयावत्थस्स गहणं कायव्वं । ण च तदवत्थस्स आसाणगमणे संभवो, विरोहादो। किमासाणं णाम ? सम्मत्तविराहणं। तं पि किंपञ्चइयं १ परिणामपञ्चइयमिदि भणामो । ण च सो परिणामो णिरहेउओ, अणंताणुबंधितिव्वोदयहेउत्तादो। ५३७. सम्मइंसणपरम्मुहीभावेण मिच्छत्ताहिमुहीभावो अणताणुबंधितिव्वोदयजणियतिव्वयरसंकिलेससिओ आसाणमिदि वुत्तं होइ । किमहमेसो छसु आवलियासु सेसासु आसाणं णीदो, ण वुणो उवसमसम्माइट्टी चेय मिच्छत्तं णिज्जइ ५३६. यहाँ सूत्रमें जो 'उपशामक' पद कहा है सो उससे दर्शनमोहनीयका उपशामक लेना चाहिये, क्योंकि यहाँ मिथ्यात्वका अधिकार है। शंका-यदि ऐसा है तो सूत्रमें 'उपशमसम्यग्दृष्टि' इस पदका निर्देश करना चाहिये, अन्यथा उपशामनारूप अवस्थाके ही ग्रहणका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जैसे 'पाचक भोजन करता है' यहाँ पाचन क्रियाके अभावमें भी पाचक शब्दका प्रयोग किया गया है वैसे ही व्यापार रहित अवस्थामें भी क्रियानिमित्तक संज्ञाका व्यवहार देखा जाता है, अतः उपशमसम्यग्दृष्टिको भी उपशामक कहने में कोई आपत्ति नहीं है। अथवा सूत्रमें आये हुए 'छसु आवलियासु सेसासु आसाणं गओ' इस वचनसे दर्शनमोहनीय अवस्थाका उपशम करके उपशमसम्यग्दृष्टि हुए जीवका ग्रहण करना चाहिये । कारण कि उपशामकका सासादनमें जाना नहीं बन सकता, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है। शंका-सासादनका क्या अर्थ है ? समाधान-सम्यक्त्वकी विराधना करना यही सासादनका अर्थ है। शंका-वह सासादन किस निमित्तसे होता है ? समाधान—परिणामोंके निमित्तसे होता है ऐसा हम कहते हैं। परन्तु वह परिणाम बिना कारणके नहीं होता, क्योंकि यह अनन्तानुबन्धीके तीव्र उदयसे होता है। ६५३७. सम्यग्दर्शनसे विमुख होकर जो अनन्तानुबन्धीके तीव्र उदयसे उत्पन्न हुआ तीव्रतर संक्लेशरूप दूषित मिथ्यात्वके अनुकूल परिणाम होता है वह सासादन है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यह जीव छह आवलिकाल शेष रहने पर सासादन गुणस्थानमें क्यों ले जाया गया है, सीधा उपशमसम्यग्दृष्टि ही मिथ्यात्वमें क्यों नहीं ले जाया गया ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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