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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं ३१५ लंभादो । तदो जेण वा तेण वा लक्खणेणागंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय सगदाए छावलियावसेसियाए आसाणमासादिय संकिलेसं पूरेयूण मिच्छत्तं गदपढमसमए उदीरिदथोवयरकम्मपदेसे घेत्तूण तस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ ति णिस्संसयं पडिवजेयव्वं । ६५३६. एत्थ पयददव्वविसए सिस्साणं णिण्णयजणणहमंतरपूरणविहाणं वत्तइस्सामो । तत्थ ताव अंतरं सेसदीहत्तमुवसमसम्मत्तद्धादो संखेजगुणं होदि । कुदो एवं परिच्छिज्जदे ? दंसणमोहणीयउवसामणाए परूविस्समाणपणुवीसपडिअप्पाबहुअदंडयादो । तदो पुत्वविहाणेणागदपढमसमयमिच्छाइट्टी अंतरविदियहिदिपढमणिसेयमादि कादण जाव मिच्छत्तस्स अंतोकोडाकोडिमेतहिदीए चरिमणिसेओ ति ताव एदेसि पदेसग्गं पलिदोवमासंखे०भागमेत्तोकड्ड कड्डणभागहारेण खंडेयूण तत्थेयखंडमंतरावरणहमोकड्डदि । पुणो एवमोकड्डिददव्वमसंखेजालोगमेत्तभागहारेण खंडिय तत्थेयखंडं घेत्तूण उदए बहुअं णिसिंचदि । विदियसमए विसेसहीणं णिसेयभागहारेण । एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाबुदयावलियचरिमसमयमेतद्धाणं गंतूण असंखेज्जलोगकरनेमें विशेष लाभ नहीं है। . इसलिये क्षपितकांश और गुणितकाश इनमेंसे किसी भी एक विधिसे आकर और उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके जब उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलि शेष रह जाय तब सासादन गुणस्थानको प्राप्त कर और संक्लेशको पूरा कर मिथ्यात्वमें जाय । इस प्रकार मिथ्यात्व को प्राप्त हुए इस जीवके उसके प्रथम समयमें उदीरणाको प्राप्त हुए थोड़ेसे कर्मपरमाणुओंकी अपेक्षा प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है इस प्रकार यह बात निःशंसयरूपसे जाननी चाहिये। ६५३६. अब यहाँ प्रकृत द्रव्यके विषयमें शिष्योंको निर्णय हो जाय इसलिये अन्तरके पूरा करनेकी विधि बतलाते हैं-यहाँ उपशमसम्यक्त्वके रहते हुए जितना अन्तरकाल समाप्त हुआ है उससे जो अन्तरकाल शेष बचा रहता है वह उपशमसम्यक्त्वके कालसे संख्यातगुणा होता है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-दर्शनमोहनीयकी उपशामनाके सिलसिलेमें जो पच्चीस स्थानीय अल्पबहुत्वदंडक कहा जायगा उससे यह जाना जाता है । । अतएव पूर्व विधिसे आकर जो मिथ्यादृष्टि हो गया है वह मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें अन्तरकालके ऊपर दूसरी स्थितिमें स्थित प्रथम निषेकसे लेकर मिथ्यात्वकी अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिके अन्तिम निषेक तक जितनी स्थितियाँ हैं उन सबके कर्मपरमाणुओंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारका भाग देकर वहाँ जो एक भाग प्राप्त होता है उसे अन्तरको पूरा करनेके लिये अपकर्षित करता है। फिर इस प्रकार अपकर्षित हुए द्रव्यमें असंख्यात लोकप्रमाण भागहारका भाग देकर जो एक भाग प्राप्त हो उसमें से बहुभाग उदयमें देता है। दूसरे समयमें विशेष हीन देता है। यह विशेषका प्रमाण निषेकभागहारसे ले आना चाहिये । इस प्रकार उदयावलिके अन्तिम समय तक विशेष हीन विशेष हीन द्रव्य देना चाहिये । यहाँ उदय समयसे लेकर उदयावलिके अन्तिम समय तक असंख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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