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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूवणा ८६. जहण्णए पयदं। दुविहो णि सो--ओघेण आदेसेण य। ओघेण अट्ठावीसं पयडीणं जह० पदे. केव० १ जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । अज० सव्वद्धा । एवं सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-सव्वदेवा ति। णवरि मणुस्सअपज्ज. अहाबीसं पयडीणं जह० पदे० एगस०, उक्क० संखेजा समया। अज. जह० खुद्दाभवग्गहणं समयूणं, सत्तणोकसायाणमंतोमुहुत्तं, सम्म०-सम्मामि० एगस०; सव्वेसिमुक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति । * अंतरं । णाणाजीवेहि सव्वकम्माणं जह० एगसमो, उक अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । ६०. एदेण मुत्तेण सूचिदजहण्णुक्कस्संतराणमुच्चारणं वत्तइस्सामो । तं जहा-- नहीं उत्पन्न होते, इसलिए इनमें दूसरी पृथिवीके नारकियोंके समान भङ्ग बन जानेसे उनके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ। ८६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भव ग्रहणप्रमाण है, सात नोकषायोंका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक समय है और सबका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेश विभक्ति क्षपणाके समय होती है। यह सम्भव है कि एक या अधिक जीव एक समय तक ही इनकी जघन्य प्रदेशविभक्ति करें और यह भी सम्भव है कि क्रमसे नाना जीव संख्यात समय तक इनकी जघन्य प्रदेशविभक्ति करते रहें, इसलिए ओघसे इनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल' संख्यात समय कहा है। इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है । अपने अपने स्वामित्वको देखते हुए सब नारकी आदि मार्गणाओंमें यह काल घटित हो जाता है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है । मात्र मनुष्यअपर्याप्तकोंमें विशेषता है। बात यह है कि वह सान्तर मार्गणा है, इसलिए उसमें सब प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अलग अलग प्राप्त होता है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है । विशेष विचार स्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है । इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ। 8 अन्तर । नाना जीवोंकी अपेक्षा सब कर्मोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । ६०. इस सूत्रसे सूचित हुए जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरको उच्चारणाके अनुसार बतलाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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