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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसहित्ती ५ १०. कुदो १ सम्मत्तं पडिवण्णणिस्संतकम्मियम्मि सम्मत्तसंतमंतोमुहुत्तं धरिय खविददसणमोहणीयम्मि तदुवलंभादो। उकस्ससामियस्स वा खवयस्स अणुकस्सम्मि पदिय णिस्संतीकरणेण सबजहण्णंतोमुहुत्तमेत्तकालो वत्तव्बो, पुविल्लादो वि एदस्स जहण्णभावदसणादो। * उक्कस्सेण बेच्छावहिसागरोवमाणि साधिरेयाणि | ६ ११. णिस्संतकम्मियमिच्छाइडिम्मि सम्मत्तं पडिवज्जिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण पलि. असं०भागमेत्तकालेण चरिमुव्वेल्लणकंदयस्स चरिमफालीए सेसाए सम्मत्तं घेत्तूण पढमच्छावहिं भमियं पुणो मिच्छत्तं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तकालेण चरिमुव्वेल्लणकंदयस्स चरिमफालीए सेसाए सम्मत्तं घेत्तूण विदियछावहिं' भमिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण पलिदो. असं०भागमेत्तकालेणुव्वेल्लिदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तम्मि तदुवलंभादो। १०. क्योंकि इन दो प्रकृतियोंकी सत्तासे रहित जो जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करके और अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्वकी सत्तावाला होकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता है उसके इन दोनों प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट द्रव्यका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। या इनके उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी जो क्षपक जीव इन्हें अनुत्कृष्ट करके निःसत्त्व कर देता है उसके इनके अनुत्कृष्ट द्रव्यका सबसे जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त कालसे भी यह काल जघन्य देखा जाता है। * उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है । ६ ११. क्योंकि इन दो प्रकृतियोंकी सत्तासे रहित जो मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होकर पुनः मिथ्यात्वमें जाकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक इनकी उद्वेलना करते हुए अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और प्रथम छथासठ सागर काल तक भ्रमण करके पुन: मिथ्यादृष्टि हुआ। तथा वहाँ पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक द्वेलना करते हुए चरम उद्वेलना काण्डककी अन्तिम फालिके शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त करके द्वितीय छयासठ सागर काल तक उसके साथ भ्रमण करता रहा और अन्तमें मिथ्यादृष्टि होकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की उसके उक्त काल उपलब्ध होता है। विशेषार्थ—यहाँपर दो चूर्णिसूत्रों द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके जघन्य और उत्कृष्ट कालका निर्देश किया गया है। ऐसा करते हुए वीरसेन स्वामीने जघन्य काल दो प्रकारसे घटित करके बतलाया है। प्रथम उदाहरणमें तो ऐसा जीव लिया है जिसके इन दो कर्मोंकी सत्ता नहीं है । ऐसा जीव सम्यग्दृष्टि होकर अन्तर्मुहूर्तमें यदि इनकी क्षपणा करता है तो उसके इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर्मुहूर्त काल उपलब्ध होता है। दूसरं उदाहरणमें ऐसा क्षपक जीव लिया है जो इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला है। १. ता. प्रतौ 'धेसण पढमछावटिं' इति पाठः । Jain Education International .. For Private & Personal use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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