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________________ गा० २२ ] उत्तरपदेसविहत्तीए कालपरूवणा * जहण्णकालो जाणिदण णेदव्यो। १२. सुगमं । १३. एवं चुण्णिमुत्तमस्सिदूण कालपरूवणं करिय संपहि एत्थुच्चारणाइरियवक्खाणक्कम भणिस्सामो । कालो दुविहो--जहण्णो उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्सए पयदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० मिच्छत्त-अट्टक०-सत्तणोक० उक्क० पदे० विहत्ती. केवचिरं काला० ? जहण्णुक्क० एगस। अणुक० ज० वासपुधत्तं, उक० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवं अणंताणु० चउक्क० । वरि अणुक्क० ज० अंतो० । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० पदेस० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० अंतो०, उक्क० वेच्छावहिसागरोमाणि सादि० । चदुसंज०-पुरिसवेदाणं उक० पदे० जहण्णुक० इस जीवके अन्तर्मुहूर्तमें इन कर्माकी नियमसे क्षपणा हो जाती है, इसलिए इसके भी इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर्मुहूर्त काल उपलब्ध होता है। इस प्रकार अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके ये दो उदाहरण उपस्थित कर वीरसेन स्वामी प्रथमकी अपेक्षा द्वितीयको ही प्रकृतमें उपयुक्त मानते हुए प्रतीत होते हैं, क्योंकि प्रथमकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जितना काल है उससे दूसरे उदाहरणकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल स्पष्टतः कम है और जघन्य कालमें जो सबसे न्यून हो वही लिया जाता है। यह तो इन दोनों कोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके जघन्य कालका विचार हुश्रा। उत्कृष्ट कालका स्पष्टीकरण स्वयं वीरसेन स्वामीने किया ही है। यहाँ इतना ही संकेत करना है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाका काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर भी न्यूनाधिक है, इसलिए जहाँ जिस कर्मकी अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालि प्राप्त हो वहां उसके सद्भावमें रहते हुए अन्तिम समयमें ही सम्यक्त्वको प्राप्त कराना चाहिए। * जघन्य कालको जानकर ले जाना चाहिए। 5 १२. यह सूत्र सुगम है। विशेषार्थ-इस चूर्णिसूत्रमें जघन्य पदसे तात्पर्य मिथ्यात्व आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंके जघन्य द्रव्यसे है। उसका जघन्य और उत्कृष्ट जो काल हो उसे जानकर घटित कर लेना चाहिए यह बात इस चूर्णिसूत्र में कही गई है। $ १३. इस प्रकार चूर्णिसूत्रके आश्रयसे कालका कथन करके अब यहाँ पर उच्चारणाचार्यके व्याख्यानके क्रमको कहेंगे। काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, आठ कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा काल जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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