SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ = जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ पसविहत्ती ५ 10 | एगस० । अणुक्क० अणादिश्रो अपज्जवसिदो अणादिश्रां सपज्जवसिदो सादिओ सपज्ज० । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो हि सो- जहण्णु ० तो ० इत्थिवेद० उक्क० पदे० जहण्णुक० एस० । अणुक्क० ज० दसवस्ससहस्साणि वासपुघणव्भहियाणि, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । $ १४. आदेसेण० णेरइएसु मिच्छत्त- सोलसक० - इण्णोक० उक० पदे० जहण्णुक्क० एस० । अणुक्क० जह० अंतो० । कुदो ! सत्तमाए पुढवीए समयाहियअसंखे०फद्दयमेत्तावसेसे आए दव्वमुकस्सं करिय विदियसमयमादि काढूण अंतोमुहुत्तमेत्तकालं अणुक्कस्सदव्वेणच्छिय णिग्गयस्स तदुवलंभादो । णेरइयचरिमसमए पदेस सुकस्ससामित्तं परूविदमुत्तेण सह एदस्स वक्खाणस्स कथं ण विरोहो १ विरोहो चेव । किं तु आउवबंधयद्धाकालम्मि जादपदेसक्खयादो उवरिमकालपदेससंचओ बहुओ ति जइवसहाइरिओएसो तेण णेरइयचरिमसमए चेव उक्कस्सपदेससामित्तं । उच्चारणाइरियाणं पुण अहिप्पारण उवरिमसंचयादो अबंधकालम्मि जादपदेसक्खओ छयासठ सागरप्रमाण है। चार संज्वलन और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका श्रनादि-अनन्त, अनादि- सान्त और सादि- सान्त काल है । उनमें से जो सादि- सान्त काल है उसका यह निर्देश है। उसकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल वर्षपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन के बराबर है । विशेषार्थ -- यहां उच्चारणाचार्य के व्याख्यानमें वही सब काल कहा गया है जो कि चूर्णि - सूत्रों द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। मात्र चूर्णिसूत्र में मिध्यात्व आदि की अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल तीन प्रकार से बतलाया गया है सो यहाँ अनन्त काल और असंख्यात लोकप्रमाण काल इन दो को छोड़कर एकका ही ग्रहण किया गया है, क्योंकि उक्त तीन प्रकारके कालों में से सबसे जघन्य काल यही प्राप्त होता है और यह निर्विवाद है । $ १४. आदेश से नारकियों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि सातवीं पृथिवीमें आयुके एक समय अधिक असंख्यात स्पर्धकमात्र शेष रहने पर उक्त कर्मों के द्रव्यको उत्कृष्ट करके और दूसरे समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक अनुत्कृष्ट द्रव्य के साथ रहकर निकलनेवाले जीवके उक्त काल पाया जाता है । शंका नारकी के अन्तिम समयमें प्रदेशसत्कर्मके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्र के साथ इस व्याख्यानका विरोध कैसे नहीं प्राप्त होता ? समाधान — उक्त सूत्र के साथ इस व्याख्यानका विरोध तो है ही, किन्तु श्रायुबन्धके काल में जो प्रदेशों का क्षय होता है उससे आगे के काल में होनेवाला प्रदेशों का संचय बहुत है यह यतिवृषभाचार्य का उपदेश है, इसलिए इस उपदेशके अनुसार नारकीके अन्तिम समयमें ही उत्कृष्ट प्रदेशस्वामित्व प्राप्त होता है । परन्तु उच्चारणाचार्य के अभिप्राय से आयुबन्ध कालसे आगे के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy