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________________ vrrrrrrrwww.r मा० २२] उत्तरपदेसविहत्तीए कालपरूवणा * अण्णोषदेसो जहण्णेण असंखेजा लोगा त्ति । ६. सव्वे जीवपरिणामा असंखेजलोगमेत्ता चेव जाणता, तहोवदेसाभावादो । तत्युक्कस्सपदेससंतकम्मकारणपरिणामकलावं मोत्तण सेसपरिणामहाणेसु अवठ्ठाणकालो जह० असंखेजलोगमेत्तो चेव तम्हा अणुक्कस्सपदेसकालो जह० असंखेजलोगमेत्तो त्ति इच्छियव्यो । ण च पदेसुत्तरादिकमेण संतकम्महाणेसु परिभमणणियमो अत्थि, एकसराहेण अणताणि हाणाणि उल्लंघियूण वि परिब्भमणुवलंभादो'। एदं केसि पि आइरियाणं वक्खाणंतरं । एदेसु दोमु उवदेसेसु एक्केणेव सच्चेण होदव्वं, अण्णोण्णविरुदत्तादो । तदो एत्थ जाणिदूण वत्तव्वं । * अधवा खवगं पडुच्च वासपुधत्तं । ७. गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सत्तमाए पुढवीए उक्कस्सपदेसं करिय पुणो समयाविरोहेण एइंदिसमु मणुस्सेसु च उववज्जिय अंतोमुहत्तब्भहिअहवस्सेहि संजमं पडिवज्जिय णिव्वुई गयम्मि अणुक्कस्सदव्वस्स वासपुधत्तमेत्तकालुवलंभादो। 8 अन्य उपदेशके अनुसार जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण है । ६. कारण कि जीवोंके सब परिणाम असंख्यात लोकमात्र ही होते हैं, अनन्त नहीं होते, क्योंकि इस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता। उनमें से उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके कारणभूत परिणामकलापको छोड़कर शेष परिणामोंमें अवस्थित रहनेका जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण ही है, इसलिए अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण है ऐसा स्वीकार करना चाहिए। और उत्तरोत्तर एक एक प्रदेशके अधिकके क्रमसे सत्कर्मस्थानों में परिभ्रमण करनेका कोई नियम नहीं है, क्योंकि एक साथ अनन्त स्थानोंको उल्लंघन करके भी परिभ्रमण पाया जाता है। यह किन्हीं प्राचार्योका व्याख्यानन्तर है सो इन दो उपदेशों से एक उपदेश ही सत्य होना चाहिए, क्योंकि ये दानों उपदेश परस्परमें विरोधको लिये हुए हैं, इसलिए यहाँपर जानकर व्याख्यान करना चाहिए। - अथवा तपककी अपेक्षा वर्षपृथक्त्वप्रमाण काल है । ६७. क्योंकि जो जीव गुणितकर्माशिककी विधिसे आकर सातवीं पृथिवीमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको करके पुनः यथाशास्त्र एकेन्द्रियों में और मनुष्यों में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कालके द्वारा संयमको ग्रहणकर मुक्तिको प्राप्त होता है उसके अनुत्कृष्ट द्रव्यका वर्ष पृथक्त्वप्रमाण काल उपलब्ध होता है । विशेषार्थ-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह तो स्पष्ट ही है, क्योंकि गुणितकर्माशविधिसे आकर जो अन्तमें उत्कृष्ट आयुके साथ दूसरी बार सातवें नरकमें उत्पन्न होता है उसके अन्तिम समयमें ही मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति देखी जाती है। इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके कालके विषयमें दो उपदेश पाये १. मा. प्रतौ 'परिभमणमणुवलंभादो' इति पाठः । Jain Edudation International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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