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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ - एवं सेसाणं कम्मापं जादूण णेदव्वं । ८. तं जहा . -अहकसाय-सत्तणोकसायाणं मिच्छत्तभंगो, जहण्णुक्कसकालेहि उकस्साणुक्कस्सदव्वक्सिएहि ततो भेदाभावादो। अणंताणुबंधिचउकस्स वि मिच्छत्तभंगो चेव । णवरि अणुक्कस्स. जहएणेण अंतोमुहुत्तं, अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय पुणो संजुत्तो होदूण अंतोमुहुत्तेण विसंजोइदम्मि तदुवलंभादो। चदुसंजापुरिस० उक्क० जहण्णु० एगस० । अणुक० अणादि-अपज्ज० अणादि-सपज्ज० सादि-सपज्ज.। जो सो सादि-सपज्जा तस्स जहण्णुक्क० अंतो० । इत्थि. उक जाते हैं। एक उपदेशके अनुसार वह अनन्त काल प्रमाण बतलाया है। इसकी व्याख्या करते हुए वीरसेन स्वामीने जो लिखा है उसका भाव यह है कि नित्य निगोद जीव दो प्रकारके होते हैं-एक वे जो अबतक न तो निगोदसे निकले हैं और न निकलेंगे। इनकी अपेक्षा तो मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल अनादि-अनन्त है। हां जो नित्य निगोदसे निकलकर क्रमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्त कर देते हैं उनकी अपेक्षा अनादि-सान्त काल है। पर चूर्णिसूत्र में इन दोनों प्रकारके कालोंका ग्रहण न कर इतर निगोद जीवोंकी अपेक्षा कालका विचार किया गया है। आशय यह है कि एक बार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति करके जो क्रमसे इतर निगोदमें चले जाते हैं उनके वहांसे निकलकर पुनः उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके प्राप्त करनेमें अनन्त काल लगता है, इसलिए चूर्णिसूत्रमें मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अनन्त काल कहा है। यह एक उपदेश है। किन्तु एक दूसरा उपदेश भी मिलता है। इसके अनुसार मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अनन्तप्रमाण न प्राप्त होकर असंख्यात लोकप्रमाण बन जाता है। उन आचार्योंके मतसे इस उपदेशके कारणका निर्देश करते हुए वीरसेन आचार्य लिखते हैं कि जीवोंके कुल परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण ही उपलब्ध होते हैं और सब प्रदेशसत्कर्मस्थानोंमें जीव क्रमसे ही प्राप्त होता है ऐसा कोई नियम नहीं है, अतः जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण बनने में कोई बाधा नहीं आती। अनुत्कृष्टके जघन्य कालके विषयमें ये दो उपदेश हैं । यह कह सकना कठिन है कि इनमें से कौन उपदेश सच है, इसलिए यहाँ दोनोंका संग्रह किया गया है। यह सम्भव है कि गुणितकौशिक जीव सातवें नरकके अन्तमें उत्कृष्ट प्रदेशसंचय करके और वहांसे निकलकर क्रमसे मनुष्य होकर वर्षपृथक्त्व कालके भीतर मोहनीयका क्षपण कर दे। इसलिए यहाँ मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल वर्षपृथक्त्वप्रमाण भी कहा है। ॐ इसी प्रकार शेष कर्मोका जानकर ले जाना चाहिए। ६८. खुलासा इस प्रकार है--आठ कषाय और सात नोकषायोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है, क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा तथा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट द्रव्यविशेषकी अपेक्षा मिथ्यात्वसे इनमें कोई भेद नहीं है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भी मिथ्यात्वके समान ही भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके और संयुक्त होकर जो अन्तमुहूर्तमें पुन: इसकी विसंयोजना करता है उसके उक्त काल पाया जाता है। चार संज्वलन और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिका काल अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त है। उसमें जो सादि-सान्त काल है उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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