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________________ जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे * मिच्छुत्तस्स उक्कस्सप देसविहत्तिय केवचिरं कालादो होदि । ९ २. सुगमं । * जहण्णुक्कस्सेणेगसमा । ९३. सत्तमपुढविणेरइयस्स उक्कस्सा अस्स चरिमसमए चेव उक्कस्सपदेससंतकमवलंभादो | * अणुस्स पदेसविहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि । ४. सुगमं । * जहगुस्से अतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ९५. चदुगदिणिगोदे पडुच्च एसो कालणिद्द सो । णिच्चणिगोदे पुण पडुच्च अणादिओ पज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो च होदि, अलद्धतसभावाणमुकस्सदव्वाणुववत्तीदों । अणुक्कस्सपदेसविहत्तीए अनंतकालावद्वाणं कथं घडदे ? ण, उक्कस्तपदेस पहुडि जाव जहणहाणं ति एदेसु अनंतेसु द्वाणेसु अनंतकाला वहाणं पsि विरोहाभावादो । * मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवका कितना काल है ? ६२. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है 1 [ पदेसविहन्ती ५ ६३. क्योंकि सातवीं पृथिवीके नारकी के उत्कृष्ट आयुके अन्तिम समयमें ही उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म उपलब्ध होता है । * अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका कितना काल है । ४. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है । ९५. चतुर्गति निगोद जीव की अपेक्षा कालका यह निर्देश किया है । नित्य निगोद जीवकी अपेक्षा तो अनादि-अनन्त और अनादि- सान्त काल होता है, क्यों कि जिन जीवोंने त्रसभावको नहीं प्राप्त किया है उनके उत्कृष्ट द्रव्यकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । शंका - अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अनन्त कालतक अवस्थान कैसे बन सकता है ? समाधान नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट प्रदेशस्थान से लेकर जघन्य प्रदेशस्थान तक जो अनन्त स्थान हैं उनमें अनन्त काल तक अवस्थानं होनेमें कोई विरोध नहीं आता है । Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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