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________________ ३९६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ तत्थ संचयाणुगमेण जहाणिसेयकालपढमसमयसंचिददव्यमहियारहिदीए जहागिसेयसरूवेगस्थि । एवं णेदव्वं जाव चरिमसमयसंचो त्ति । संचयाणुगमो गदो। ६६५०. एत्तो भागहारपमाणाणुगमं वत्तइस्सामो । तं जहा–असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमत्तं हेहदो ओसरिय हिदपढमसमयपबद्धसंचयस्स भागहारे उप्पाइज्जमाणे समयपबद्धमेगं ठविय जहाणिसेयसंचयकालभंतरणाणागुणहाणिसलागाओ पलिदोवमपढमवग्गमूलद्धच्छेदणाहिंतो असंखेजगुणहीणाओ विरलिय दुगुणिय अण्णोण्णभासणिप्पण्णरासिसादिरेओ भागहारो ठवेयव्यो । एवं ठविदे एत्तियमेत्तगुणहाणीओ गालिय परिसेसिदमहियारगोवुच्छादो पहुडि अंतोकोडाकोडिदव्वमागच्छइ । संपहि इमं सव्वदव्यमहियारगोवुच्छपमाणेण कीरमाणं दिवट्टगुणहाणिमेत्तं होइ ति दिवडगुणहाणीओ वि भागहारत्तेण ठवेयवाओ। तदो अहियारगोवुच्छदव्वं णिसेयसरूवेणागच्छइ । पुणो जहाणिसेयहिदिपत्तयमिच्छामो ति असंखेज्जा लोगा वि भागहारसरूवेणेदस्स ठवेयव्वा । तं जहा-पयदगोवुच्छदव्वं जहाणिसे यकालपढमसमयप्पहुडि बंधावलियमेत्तकाले वोलीणे ओकड कड्डणभागहारेण खंडिदेयखंडमेत्तं हेटोवरि परसरूवेण गच्छद। विदियसमए वि ओकड्ड कड्डणभागहारपडिभागेण परसरूवेण worrrrrrrr संचयानुगमकी अपेक्षा विचार करते हैं- यथानिक कालके प्रथम समयमें जो द्रव्य संचित होता है वह यथानिषेकरूपसे अधिकृत स्थितिमें है । इस प्रकार संचयकालके अन्तिम समय तक जानना चाहिये। आशय यह है कि संचय कालके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक प्रत्येक समयमें यथानिषेकरूपसे संचित होनेवाला द्रव्य विवक्षित स्थितिमें पाया जाता है। इस प्रकार संचयानुगम समाप्त हुआ। ६६५०. अब इससे आगे भागहारप्रमाणानुगमको बतलाते हैं । यथा-पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण स्थान पीछे जाकर प्रथम समयमें प्राप्त हुए संचयका भागहार उत्पन्न करनेकी इच्छासे एक समयप्रबद्धको स्थापित करे। फिर उसका पल्यके प्रयम वर्गमूलके अर्धच्छेदोंसे असंख्यातगुणी हीन यथानिषेक संचयकाल के भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंका विरलन कर और दूनाकर परस्परमें गुणा करके उत्पन्न हुई राशिसे कुछ अधिक भागहार स्थापित करे। इस प्रकार स्थापित करने पर इतनी गुणहानियोंको गलानेके बाद अधिकृत गोपुच्छासे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण शेष द्रव्य प्राप्त होता है। अब इस पूरे द्रव्यको अधिकृत गोपुच्छाके बराबर हिस्सा करके विभाजित करने पर वह डेढ़ गुणहानिप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिये डेढ़ गुणहानिको भी भागहाररूपसे स्थापित करे। तब जाकर अधिकृत गोपुच्छाका द्रव्य निषेकरूपसे प्राप्त होता है। अब यहाँ यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य लाना है इसलिये इसका असंख्यात लोकप्रमाण भागहार और भी स्थापित करे। खुलासा इस प्रकार है-यथानिषेककालके प्रथम समयसे लेकर बन्धावलिप्रमाण कालके व्यतीत होने पर प्रकृत गोपुच्छाके द्रव्यमें अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देने पर जो एक भागप्रमाण द्रव्य प्राप्त हो उतना द्रव्य नीचे ऊपर अन्य गोपुच्छारूप हो जाता है। दूसरे समयमें भी अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उतना द्रव्य अन्य गोपुच्छारूप हो जाता है। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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