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________________ गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं ३६५ ॐ दुसमयाहियाबाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए एयसमयाहियआबाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए च उक्कस्सयं जोगमुववरणो। ६४७. एत्थ तिस्से हिदीए इदि अणुवट्टदे । तेणेवमहिसंबंधो कायव्वोतिस्से सामित्तहिदीए दुसमयाहियजहण्णाबाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए समयाहियजहण्णाबाहचरिमसमयअणुदिण्णाए च उक्कस्सजोगहाणं पडिवण्णो त्ति । चरिमदुचरिम-तिचरिमसमयअणुदिण्णादिकमेणोयरिय दुसमयाहिय-एयसमयाहियाबाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए णिरुद्धद्विदीए सो गैरइओ उक्कस्सजोगहाणेण परिणदो त्ति भणिदं होइ । वे समए मोत्तूण बहुअं कालमुक्कस्सजोगेणेव किण्ण अच्छाविदो ? ण, वेसमयपाओग्गस्स तस्स तहासंभवाभावादो । * तस्स उकस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं । ६४८. तस्स तारिसस्स गेरइयस्स जाधे सा हिदी उदयमागदा ताधे उक्कस्सयमधाणिसेययहिदिपत्तयं होइ ति उत्तं होइ। -- ६४६. संपहि एत्थ उपसंहारे भण्णमाणे तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगदाराणि । तं जहा-संचयाणुगमो भागहारपमाणाणुगमो लद्धपमाणाणुगमो चेदि । * उस स्थितिके दो समय अधिक आबाधाके अन्तिम समयमें अनुदीर्ण होने पर और एक समय अधिक आबाधाके अन्तिम समयमें अनुदीर्ण होने पर उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ। ६६४७. इस सूत्रमें 'तिस्से हिदीए' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। इससे ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये कि उस स्वाभित्वस्थितिके दो समय अधिक जघन्य आबाधाके अन्तिम समयमें अनुदीर्ण रहने पर और एक समय अधिक जघन्य आबाधाके अन्तिम समयमें अनुदीर्ण रहने पर जो उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त हुआ है। चरम समय, द्विचरम समय और त्रिचरम समयमें अनुदीर्ण रहने आदिके क्रमसे उतरकर दो समय अधिक और एक समय अधिक आबाधाके चरम समयमें विवक्षित स्थितिके अनुदीर्ण रहने पर वह नारकी उत्कृष्ट योगस्थानसे परिणत हुआ यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-दो समयको छोड़कर बहुत काल तक उत्कृष्ट योगके साथ ही क्यों नहीं रखा गया है ? समाधान नहीं, क्योंकि जो योग दो समयके योग्य है उसका और अधिक काल तक रहना सम्भव नहीं है। * वह नारकी उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है। $ ६४८. इन पूर्वोक्त विशेषताओंसे युक्त जो नारकी है उसके जब वह स्थिति उदयको प्राप्त होती है तब वह उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है यह इस सूत्रका आशय है। ६६४९. अब यहाँ पर उपसंहारका कथन करते हैं। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं। यथा-संचयानुगम, भागहारप्रमाणानुगम और लब्धप्रमाणानुगम । उनमेंसे सर्व प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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