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________________ ३९४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ जहाणिसेयसंचयकालस्स पयदणेरइयस्स पञ्चासण्णसामित्तुद्देसे जोगावासयपडिबद्धवावारविसेसपरूवणमुत्तरो पबंधो * जा जहएिणया भाषाहा अंतोमुहुत्तुत्तरा एवदिसमयअणुदिण्णा सा हिदी । तदो जोगहाणाणमुवरिल्लमद्ध गदो । ६४६. अंतोमुहुत्तुत्तरा जा जहण्णाबाहा एवदिमसमयअणुदिण्णा सा हिंदी जा पुन्वणिरुद्धा सामित्तहिदी । एत्थंतोमुहुत्तपमाणं जोगजवमज्झादो उवरि अच्छणकालमत्तं । तदो जोगहाणाणमुवरिल्लमद्धं गओ जोगहाणाणमुवरिल्ल भागं गंतूणंतोमुहुत्तमेत्तकालमच्छिदो त्ति भणिदं होइ । किमहमेसो जोगहाणाणमुवरिल्लमद्धं णीदो ? जोगबहुत्तेण बहुदव्वसंचयकरण। जइ एवं, अंतोमुहुत्तं मोत्तूण सव्वकालं तत्थेव किण्ण अच्छाविदो ? ण, तत्तो अहियं कालं तत्थावहाणासंभवादो । जेणेदमंतदीवयं तेण पुव्वं पि जाव संभवो ताव तत्थच्छिदो ति घेत्तव्वं । एत्थेव णिलीणो चरिमजीवगुणहाणिहाणंतरे आवलियाए असंखेजदिभागमच्छिदो त्ति अवंतरवावारविसेसो परूवेयव्यो। सकते। अब इस विधिसे कुछ कम यथानिषेक संचयकालका अनुसरण करनेवाले प्रकृत नारकीके स्वामित्वविषयक स्थानके समीपवर्ती होनेपर योगावश्यकसे सम्बन्ध रखनेवाला जो व्यापारविशेष होता है उसका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं ___ * अन्तमुहूर्त अधिक जो जघन्य आवाधा है इतने काल तक वह स्थिति अनुदीर्ण रही । अनन्तर जो योगस्थानोंके उपरिम अद्धभागको प्राप्त हुआ। ६६४६. अन्तर्मुहूर्त अधिक जो जघन्य आबाधा है इतने काल तक वह स्वामित्वस्थिति अनुदीर्ण रहती है जिसका कथन पहले कर आये हैं। यहाँ अन्तर्मुहूर्तसे योगयवमध्यसे ऊपर रहनेका जितना काल है वह काल लिया है। फिर सूत्र में जो यह कहा है कि 'तदो जोगट्ठाणाणमुवरिल्लमद्ध गो' सो इसका यह आशय है कि इसके बाद योगस्थानोंके उपरिम भागको प्राप्त होकर जो अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा है। शंका-यह जीव योगस्थानोंके उपरिम भागको क्यों प्राप्त कराया गया है ? समाधान-बहुत योगके द्वारा अधिक द्रव्यका संचय करनेके लिये यह जीव योगस्थानोंके उपरिम भागको प्राप्त कराया गया है। शंका-यदि ऐसा है तो अन्तर्मुहूर्त न रखकर पूरे काल तक वहीं इस जीवको क्यों नहीं रखा गया है ? समाधान नहीं, क्योंकि इससे अधिक काल तक वहाँ रहना सम्भव नहीं है। यतः यह कथन अन्तदीपक है अतः इससे यह अर्थ भी लेना चाहिये कि पूर्व में भी जब तक सम्भव हो तब तक यह जीव वहाँ रहे। यहाँ जीवकी अन्तिम गुणहानिस्थानान्तरमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहनेरूप जो अवान्तर व्यापारविशेष इसीमें गर्भित है उसका कथन करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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