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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं ३८१ ३६२५. तं जहा ति आसंकावयणमेदं । ॐ ओकड्ड क्कडगाए कम्मरस अवहारकालो थोवो। ६६२६. एयसमयम्मि जं पदेसग्गमोकड्डदि उक्कड्डदि वा तस्स पदेसग्गस्स आगमणहेदुभूदो जो अवहारकालो सो थोवयरो त्ति भणिदं होदि । * अधापवत्तसंकमेण कम्मरस अवहारकालो असंखेजगुषो। ६२७. जइ वि एत्थ मिच्छत्तस्स अधापवत्तसंकमो णस्थि तो वि ओकड्डकड्डणभागहारस्स पमाणपरिच्छेदकरणहमेदस्स तत्तो असंखेजगुणत्तं परूविदं । एदम्हादो थोवयरीभूदो ओकड्ड क्कड्ड गभागहारो एत्थ गुणयारो होदि ति । अथवा सोलसकसाय-णवणोक सायाणमयसमयम्मि बद्धमे यहिदिणिसित्तपदेसग्गमावलियमेत्तकाले वोलीणे पुणो उवरिमप्तम पप्प हुडि ओकड्ड कहुणाए विणासं गच्छइ । परपयडिसंकमेण वि तत्थोकड कड्ड गाए विणासिजमाणदव्वं पहाणं, परपयडिसंकमेण विणासिज्जमाणदबमप्पहाणमिदि जाणावणहमेदमबहारकालप्पाबहुगं भणिदं, अण्णहा तदवगमोवायाभावादो। * ओकडकड्डणाए कम्मरस जो अवहारकालो सो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। ६६२५. यह 'तद्यथा' इस प्रकार आशंकावचन है । * अपकर्षण-उत्कर्षण द्वारा कर्मका जो अवहारकाल होता है वह सबसे थोड़ा है। ६६२६. एक समयमें जो कर्म अपकर्षित होता है या उत्कर्षित होता है उस कर्मको प्राप्त करनेके लिये जो अवहारकाल है वह सबसे थोड़ा है यह इस सूत्रका तात्पर्य है। * उससे अधःप्रवृत्तसंक्रमणद्वारा कर्मका जो अवहारकाल होता है वह असंख्यातगुणा है। ६६२७. यद्यपि यहाँ मिथ्यात्वका अधःप्रवृत्तसंक्रम नहीं होता है तो भी अपकर्षणउत्कर्षणभागहारके प्रमाणका निर्णय करनेके लिये इसे उससे असंख्यातगुणा बतलाया है। इस भागहारसे अल्परूप जो अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार है वह यहाँ गुणकार होता है। अथवा सोलह कषाय और नौ नोकषायोंमें से एक समयमें बंधा हुआ जो द्रव्य एक स्थितिमें निक्षिप्त हुआ है वह एक आवलि कालके व्यतीत होने पर उपरिम समयसे लेकर अपकर्षण-उत्कषण द्वारा विनाशको प्राप्त होता है। यहाँ परप्रकृत्तिसंक्रमणकी अपेक्षा अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाला द्रव्य ही प्रधान है किन्तु परप्रकृतिसंक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाला द्रव्य प्रधान नहीं है इस प्रकार इस बातको जतानेके लिये यह अवहारकालविषयक अल्पबहुत्व कहा है, अन्यथा उसका ज्ञान नहीं हो सकता है । ____ * अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा कर्मका जो अबहारकाल होता है वह पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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