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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए परिमाणपरूपणा ६६७. जहण्णए पयदं। दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण छन्वीसं पयडीणं जह० केत्ति ? संखेज्जा । अज० केत्ति०? अणंता । सम्म०सम्मामि० जह० पदे०वि० केत्ति ? संखेजा। अज० के० ? असंखेजा। एवं तिरिक्खाणं । ___$६८. आदेसेण णेरइएसु अट्ठावीसं पयडीणं जह० के० १ संखेज्जा । अज० केति० १ असंखेजा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज०देव-भवणादि जाव अबराइदो त्ति । मणुसपज्ज०-मणुसिणी-सव्वदृसिद्धि. सव्वपदा० के. ? संखेज्जा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति । ६६७. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश-ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले .जीव कितने हैं ? संख्यात है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार तियञ्चोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपणाके समय यथायोग्य स्थानमें होती है। यतः इनकी क्षपणा करनेवाले जीव संख्यात होते हैं, अतः इनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव अनन्त होते हैं यह स्पष्ट ही है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्ति अन्य विशेषताओंके रहते हुए अपनी अपनी उद्वेलनाके अन्तिम समयमें होती है। यतः ये जीव भी संख्यात ही होते हैं, अतः इनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव असंख्यात होते हैं यह स्पष्ट ही है। सामान्यसे तिर्यश्च अनन्त होते हैं, इसलिए उनमें यह ओघप्ररूपणा बन जाती है, अतः उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र उनमें स्वामित्वका विचार कर परिमाण घटित करना चाहिए। ६८. आदेशसे नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए। विशेषार्थ-सामान्य नारकियोंसे लेकर पूर्वोक्त सब मार्गणाओंमें संख्यात जीव ही सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति करते हैं, इसलिए सर्वत्र अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। तथा मनुष्य पर्याप्त आदि तीन मार्गणाओंका परिमाण संख्यात है और शेषका असंख्यात है, इसलिए इनमें अपने अपने परिमाणके अनुसार अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवों का परिमाण कहा है। इस प्रकार परिमाण समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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