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________________ ११६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ २३६. धुवबंधित्तादो हस्स-रदिबंधगद्धाए वि एदिस्से बंधुवलंभादो । केत्तियमेत्तो विसेसो ? हस्स-रदिबंधगद्धाजणिदसंचयमेतो । सेसं सुगम । * भए जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।। २३७. कुदो ? पयडिविसेसादो विशेषमात्रमत्रकारणमुद्घोषयामः । * लोभसंजलणे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २३८. एत्थ कारणं युच्चदे । तं जहा-भयदव्वं मोहणीयसव्वदव्वस्स दसमभागो। लोभसंजलणदव्वं पुण मोहदव्वस्स अट्टमभागो, कसायभागस्स चउसु वि संजलणेसु विहंजिय हिदत्तादो। अण्णं च लोभसंजलणदव्वमधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि जहण्णं जादं। भयपदेसग्गं पुण तत्तो उवरि अंतोमुहुत्तमेत्तगुणसेढिगोवुच्छासु गलिदासु गुणसंकमदव्वे च परिहीणे अणियट्टिअद्धाए संखेजे भागे गंतूण पत्तजहण्णभावमेदेण कारणेण एदासि पयडीणं पदेसस्स हीणाहियभावो ण विरुज्झदे । __एवमोघजहण्णदंडओ सकारणो समत्तो । ® 'णिरयगईए सव्वत्थोवं सम्मत्ते जहएणपदेससंतकम्मं । २३६. एदस्स आदेसजहण्णप्पोबहुअमूलपदपरूवयसुत्तस्स अत्थपरूवणा $ २३६. क्योंकि जुगुप्सा प्रकृति ध्रुवबन्धिनी है। हास्य और रतिके बन्धकालमें भी इसका बन्ध पाया जाता है। कितना अधिक है ? हास्य और रतिके बन्धकालमें जितना सश्चय होता है उतना अधिक है। शेष कथन सुगम है। * उससे भयमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ २३७. क्योंकि प्रकृति विशेष ही इस विशेषका कारण है यहाँ हम यह कहते हैं। * उससे लोभ संज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्क विशेष अधिक है। ६. २३८. अब यहाँ इसका कारण कहते हैं जो इस प्रकार है-भयका द्रव्य तो मोहनीयके सब द्रव्यका दसवां भाग है। परन्तु लोभसंज्वलनका द्रव्य मोहनीयके सब द्रव्यके आठवाँ भाग है, क्योंकि कषायोंका हिस्सा चारों संज्वलनोंमें विभक्त होकर स्थित है। दूसरा कारण यह है कि लोभ संज्वलनका द्रव्य अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जघन्य हो जाता है परन्तु भयका द्रव्य इसके आगे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गुणश्रेणि गोपुच्छाओंके गला देने पर और गुणसंक्रमके द्रव्यके घट जानेपर अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जानेपर जघन्य होता है इसलिये इन दोनों प्रवृतियोंका हीनाधिकभाव विरोधको नहीं प्राप्त होता । इस प्रकार कारणसहित ओघसे जघन्य दण्डकका कथन समाप्त हुआ। * नरकगतिमें सम्यक्त्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म सबसे थोड़ा है। ६२३६. आदेशसे जघन्य अल्पबहुत्वके मूलपदका कथन करनेवाले इस सूत्रका १. ता०प्रतौ 'वुच्चदे भयदव्वं' इति पाठः । بی بی بی سی دی و دی جی م حمد بی بی بی اور سی جمعه ی یه عینی کی کی هے Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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