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________________ १८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गुणसेढीसु त्थिउक्केण उदयमागदासु तस्स उक्क० हाणी। सम्मामिच्छ० एवं चेव । सम्मत्त-अणंताणु०४ हाणी ओघं । हस्स-रइ-अरइ-सोग० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णद. संजमगुणसेढिसीसयाणि जाधे उदएण णिग्गलिदाणि ताधे उक्कस्सजोगमागदस्स संकिलेसं च तप्पाओग्गं पडिवण्णस्स तस्स उक्क० बडी । हाणी कस्स ! अण्णद० सम्मत्त-संजम-संजमासंजमगुणसेढीसु अविणहामु देवेसुबवण्णलयस्स जाधे गुणसेढिसीसगाणि उदयमागदाणि ताधे उक्क. हाणी । एवं जाव अणाहारि ति । ३५१. जहएणए पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-पुरिसवेद-भय-दुगुंछ० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० असंखेज०भागेण वडियूण बड्डी हाइदूण हाणी अण्णदरत्थ अवहाणं । सम्मत्त-सम्मामि०इत्थि-णवंस०-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागेण वड्डियूण वड्डी हाईदूण हाणी। एवं सव्व-णेरइय०-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस्सदेव जाव उवरिमगेवज्जा त्ति । णवरि अपज्जत्तएसु सम्म०-सम्मामि० बडी पत्थि। पुरिसवे० सम्माइहिम्मि अवहिदं णायव्वं । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठा ति बारसक०-पुरिसवेद०-भय-दुगुंछ० जहण्णवड्डि-हाणी कस्स ? अण्णद० असंखेज०भागेण वड्डिदूण वड्डी हाइद्ण हाणी । सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम गुणश्रेणियोंके स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा उदयमें आ गई हैं उसके उक्त कर्मों की उत्कृष्ट हानि होती है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग इसी प्रकार है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट हानिका भंग ओघके समान है। हास्य, रति, अरति और शोककी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर जीव संयमगुणश्रोणिशीर्षों को जब उदयके द्वारा गला देता है तब उत्कृष्ट योग और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुए उस जीवके उक्त कर्मों की उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर जीव सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम गुणश्रेणिशीर्षों के नाश किये विना देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके जब गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त हुए तब उसके उक्त कर्मों की उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए। ६३५१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? अन्यतर जीवके असंख्यातवें भाग वृद्धि करनेसे वृद्धि होती है, इतनी ही हानि करनेसे हानि होती है और इनमेंसे किसी एक स्थानमें अवस्थान होता है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातवें भागप्रमाण वृद्धि होकर वृद्धि और हानि होकर हानि होती है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तियञ्च, सब मनुष्य और सामान्य देवोंसे लेकर उपरिम प्रवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी वृद्धि नहीं है। पुरुषवेदका अवस्थितपद सम्यग्दृष्टि जीवमें जानना चाहिए । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि और हानि किसके होती है ? अन्यतरके असंख्यातवें भागप्रमाण वृद्धि होकर वृद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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