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________________ ३६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ५८८, पुव्वुत्तासेसपयडीणमुदीरणोदइल्लाणं जो जहण्णप्पाबहुआलावो सो चेव उदीरणोदयविरहिदपयडीणं पि कायव्यो, विसेसाभावादो। होउ णामाणताणुबंधीणमेसो अप्पाबहुआलावो, सामित्ताणुसारित्तादो। ण वुण इत्थि-णव॒सयवेदाणं, तत्थ सामित्ताणुसरणे तिण्हं पि जहण्णझीणहिदियादो उदयादो जहण्णझीणहिदियस्स असंखेज्जगुणत्तदंसणादो । ण एस दोसो, तहाणभुवगमादो। तहा चेव उवरि पक्खंतरस्स परूविस्समाणादो। किंतु त्थिउक्कसकममविवक्खिय समूहेणेव उदयादो वि जहण्णझीणहिदियस्स वेछावहिसागरोवमाणि भमाडिय सामित्तं दायबमिदि एदेगाहिप्पारण पयट्टमेदं । एदम्मि गए अवलंबिजमाणे उदयादो जहण्णझीणहिदियं पेक्खियण सेसाणं समयूणावलियगुणयारदसणादो। ~ $ ५८८. उदीरणोदयवाली पूर्वोक्त सब प्रकृतियोंका जो जघन्य अल्पबहुत्व कहा है, उदारणोदयसे रहित प्रकृतियोंका भी उसी प्रकार अल्पबहुत्व समझना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। शंका-अपने स्वामित्वके अनुसार होनेसे अनन्तानुबन्धियोंका यह अल्पबहुत्वालाप रहा आवे, परन्तु स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका यह अल्पबहुत्व नहीं प्राप्त होता, क्योंकि वहाँ पर स्वामित्वका अनुसरण करने पर जो अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितिक जघन्य द्रव्य है उससे उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिक जघन्य द्रव्य असंख्यातगुण देखा जाता है । समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्यों वैसा स्वीकार नहीं किया है। पक्षान्तर रूपसे आगे इसी बातका कथन भी करेंगे। किन्तु स्तिवुक संक्रमणकी विवक्षा न करके समूहरूपसे ही उदयकी अपेक्षा भी जघन्य झीनस्थितिवाले द्रव्यका स्वामित्व दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कराके देना चाहिये इस प्रकार इस अभिप्रायसे यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है। इस नयका अवलम्बन करने पर उदयकी अपेक्षा जघन्य झीनस्थितिवाले द्रव्यको देखते हुए शेष झीनस्थितिवाले द्रव्योंका गुणकार एक समय कम एक आवलिप्रमाण देखा जाता है। विशेषार्थ जो उपशमसम्यग्दृष्टि छह आवलि कालके शेष रहने पर सासादनमें जाता है और फिर वहाँसे मिथ्यात्वमें जाता है उसके प्रथम समयमें अपकर्षणादि तीनकी अपेक्षा और एक आवलि कालके अन्तमें उदयकी अपेक्षा भीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य होता है। यतः अपर्षणादि तीनकी अपेक्षा जो झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य प्राप्त होता है वह उदयावलिके निषेक प्रमाण होता है और उदयकी अपेक्षा जो झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य प्राप्त होता है वह उदयावलिके अन्तिम निषेक प्रमाण होता है, इसलिये यहाँ उदयकी अपेक्षा झीनरितिथवाले जघन्य द्रव्यसे अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा प्राप्त हुआ झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य असंख्यातगुणा बतलाया है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन प्रकृतियोंका चारोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य भी इसी प्रकार उदीरणोदयके होने पर ही प्राप्त होता है, इसलिये इनका अल्पबहुत्व भी पूर्वोक्त प्रकारसे प्राप्त हो जाता है। अब रहीं शेष आठ प्रकृतियाँ सो इनमेंसे चार अनन्तानुबन्धी प्रकृतियाँ तो ऐसी हैं जिनका उक्त चारोंकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व अपने उदयकालमें ही प्राप्त होता है, इसलिये उनका भी अल्पबहुत्व उक्त प्रकारसे बन जाता है। शेष चारमें भी अरति और शोक ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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