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________________ गा०२२] उत्तरपयतिपदेसविहत्तीए अंतरफालपरूवणा बारसकसाय-छण्णोकसायाणं णियमा विहतिओ। तं तु उकस्सादो अणुकस्सं वेहाणपदिदं अर्णतभागहीणं असंखेजभागहीणं वा । इत्थि-णqसयवेदाणं णियमा अणुकस्सविहतिओ असंखेज्जभागहीणो। इत्थिवेददव्वेण संखेजगुणहीण होदव्वं, गेरइयइथिवेदपंधगदादो कुरवित्थिवेदबंधगदाए लद्धणqसयवेदबंधगद्धा संखेजभागबहुभागा। एवं संखेजगुणत्तादो कुरवेस इत्थिवेदपूरणकालो एगगुणहाणीए असंखेज दिभागो त्ति कटु णासंखे०भागहीणत्तं जुत्तं, तत्थ असंखेजाणं गुणहाणीणमुवलंभादो । णोवलंभो असिद्धो, 'रदीए उकस्सदव्वादो इत्थिवेदुकस्सदव्वं संखेज्जगुणं' इदि उवरि भण्णमाणअप्पाषहुअमुत्तेण तत्थ असंखेज्जाणं गुणहाणीणमुवलंभादो । गर्बुसयवेददव्वेण वि संखेजभागहीणेण होदव्वं, ईसाणदेवेसु गवंसयवेदेण त्यावरबंधयद्धं सयलं लदण तसबंधगद्धाए पुणो संखेजखंडीकदाए लदबहुभागत्तादो। कुरवीसाणदेवेसु इत्थि-णqसयवेदाणि आवरिय गैरइएमुप्पन्जिय उक्कस्सीकयमिच्छत्तस्स असंखे०भागहाणी होदि ति वोत्तु जुत्तं, तेत्तीसं सागरोवमेसु गलिदासंखेज्जगुणहाणिदव्वस्स णिरयगइसंचयं मोत्तण कुरवीसाणदेवेसु संचिददव्वस्स अवहाणविरोहादो। तम्हा बारह कषाय और छह नोकषायोंकी नियमसे विभक्तिवाला होता है। किन्तु वह इसकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला भी होता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा उसके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तभागहीन होती है या असंख्यातभाग हीन होती है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है जो नियमसे असंख्यातभागहीन प्रदेशविभक्तिवाला होता है। शंका- स्त्रीवेदका द्रव्य संख्यातगुणा हीन होना चाहिए, क्योंकि नारकियोंमें जो स्त्रीवेदका बन्धक काल है उससे तथा देवकुरु और उत्तरकुरुमें जो स्त्रीवेदका बन्धककाल है उससे प्राप्त हुआ नपुंसकवेदका बन्धक काल संख्यात बहुभाग अधिक देखा जाता है । इसप्रकार संख्यातगुणा होनेसे देवकुरु उत्तरकुरुमें स्त्रीवेदका पूरणकाल एक गुणहानिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा मानकर उसे असंख्यातवें भागहीन मानना उचित नहीं है, क्योंकि वहां असंख्यात गुणहानियाँ उपलब्ध होती है और उनका प्राप्त होना असम्भव भी नहीं है, क्योंकि रतिके उत्कृष्ट द्रव्यसे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट द्रव्य संख्यातगुणा है इस प्रकार आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्व सूत्रके अनुसार वहाँ असंख्यात गुणहानियाँ उपलब्ध होती हैं। तथा नपुंसकवेदके द्रव्यको भी संख्यातवें भाग हीन नहीं होना चाहिए, क्योंकि ईशान कल्पके देवोंमें नपुंसकवेदके साथ समस्त स्थावर बन्धक कालको प्राप्त करके पुनः त्रसबन्धक कालके संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि उत्तरकुरु-देवकुरु और ऐशान कल्पके देवोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदको पूरकर तथा नारकियोंमें उत्पन्न होकर मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करनेवाले जीवके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यात भागहानि होती है सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि तेतीस सागरप्रमाण कालके भीतर असंख्यात गुणहानिप्रमाण द्रव्यके गल जाने पर नरकगतिसम्बन्धी सञ्चयको छोड़कर कुरु और ऐशान कल्पके देवोंमें संचित्त हुए द्रव्यका अवस्थान माननेमें विरोध आता है, इसलिए असंख्यातभागहीनपना नहीं बनता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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