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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहरे [पदेसविहत्ती ५ असंखेज्जभागहीणतं ग घडदे त्ति ? ण, कुरवीसाणदेवेसु उकस्सीकयइत्थि-णबुंसयवेददव्वं णेरइएमुप्पज्जिय उकस्ससंकिलेसेणुक्कडिय उकस्सीकयमिच्छतस्स इत्थि-णसयवेददव्वाणमसंखे०भागहाणिं पडि विरोहाभावादो। एगगुणहाणीए असंखे०भागमेत्तकालेण तेत्तीससागरोवमेसु हिददव्वमुक्कड्डिय सयलदव्वस्स असंखे०भागमेत्तं चैव तत्थ धरेदि त्ति कुदो गव्वदे ? एदम्हादो चेव सण्णियासादो । किं च गुणिदकम्मंसिए 'उवरितीणं हिदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदं हेडिल्लीणं हिदीणं णिसेयस्स जहण्णपदं' ति वेयणामुत्तादो च णव्वदे जहा असंखे०भागो चेव गलदि त्ति । चदुसंजलण-पुरिसवेद० णियमा अणुक्क० संखेजगुणहीणा । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं णियमा अवित्तिओ, गुणिदकम्मंसियतादो। एवं बारसकसाय-छणोकसायाणं। समाधान-नहीं, क्योंकि कुरुवासी जीवोंमें और ऐशान कल्पके देवोंमें उत्कृष्ट किये गये स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके द्रव्यको नारकियोंमें उत्पन्न होकर उत्कृष्ट संक्लेश द्वारा उत्कर्षित करके जिसने मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट किया है उसके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका द्रव्य असंख्यात भागहीन होता है इसमें कोई विरोध नहीं आता। शंका-एक गुणहानिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा तेतीस सागर कालके भीतर स्थित द्रव्यका उत्कर्षण करके समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको ही वहाँ धारण करता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सन्निकर्षसे जाना जाता है। दूसरे गुणितकांशिक जीवमें उपरितन स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद होता है और अधस्तन स्थितियोंके निषेकका जघन्य पद होता है ऐसा जो वेदनासूत्रमें कहा है उससे जाना जाता है कि असंख्यातवाँ भाग ही गलता है। चार संज्वलन और पुरुषवेदकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है जो अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति संख्यातगुणी हीन होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अविभक्तिवाला होता है, क्योंकि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला जीव गुणितकर्माशिक है। इसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। विशेषार्थ-मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषयोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी एक समान है, इसलिए मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके अन्य प्रकृतियोंके साथ जिस प्रकारका सन्निकर्ष कहा है उसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेविभक्तिवाले जीवके अन्य प्रकृतियोंके साथ सन्निकर्ष बन जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि बारह कषायोंकी उत्कृष्ट कर्मस्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण है और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट कर्मस्थिति संक्रमसे प्राप्त होती है जो चालीस कोड़ाकोड़ी सागरसे एक आवलि कम है, अतः मिथ्यात्वकी गुणितकांशविधि करते हुए जिस जीवके तीस कोड़ाकोड़ी सागर व्यतीत हो गये हैं उसके आगे इन कर्मों की गुणितकाशविधि करानी चाहिए। इस प्रकार करानेसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय इन कर्मों की भी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति प्राप्त हो जाती है। अन्यथा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय इन कर्मो की अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति रहती है। इसी प्रकार इन कर्मो की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय मिथ्यात्वकी भी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति घटित कर लेनी चाहिए । यह इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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