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________________ २९७ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण संजदासजद-संजदगुणसेढीओ काऊण पुणो अणंताणुबंधी विसंजोइय दंसणमोहणीयं खवेमाणो वि अहकसायाणं पुव्विल्लदोगुणसेढिसीसएहि सरिसमप्पणो गुणसेढिसीसयं काऊण अधापवत्तसंजदो जादो। गुणसेढिसीसएस उदयमागच्छमाणेसु कालं काऊण देवेसुप्पण्णपढमसमए वट्टमाणओ जो जीवो तस्स पढमसमयअसंजदस्स उदिण्णगुणसेढिसीसयस्स अहकसायाणमुक्कस्समुदयादो झीणहिदियं होदि ति सिद्धं । एत्य सत्थाणम्मि चेव असंजमं णेऊण सामित्तं किण्ण दिण्णं ? ण, सत्थाणम्मि असंजमं गच्छमाणो पुत्वमेव अंतोमुहुत्तकालं संकिलेसमावूरेइ ति एत्तियमेत्तकालपडिबद्धगुणसेढिलाहस्स विणासप्पसंगादो । सिस्सो' भणइ-एदम्हादो उवसमसेढिमस्सियूण उक्कस्सयमुदयादो झीगहिदियं बहुअं लहिस्सामो । तं जहा-जो गुणिदकम्मंसिओ सबलहुँ कसायउवसामणाए अब्भुहिदो अपुवकरणपढमसमयप्पहुडि गुणसेटिं करेमाणो अपुवकरणद्धादो अणियट्टिअद्धाओ च विसेसाहियं काऊण अणियट्टिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु से काले अंतरं पारभदि त्ति मदो देवो जादो तस्स अंतोमुहुत्तोववण्णल्लयस्स जाधे इसलिये गुणितकाशकी विधिसे आकर और संयतासंयत तथा संयतसम्बन्धी गुणश्रेणियोंको करके फिर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता हुआ भी आठ कषायोंके पहले दो गुणश्रेणिशीर्षों के समान अपने गुणश्रेणिशोषको करके अधःप्रवृत्तसंयत हो गया। फिर गुणणिशीर्षों के उदयमें आनेपर मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार देवोंमें उत्पन्न होकर जो प्रथम समयमें विद्यमान है उस प्रथम समयवर्ती असंयतके गुणश्रोणिशीर्षके उदय होनेपर आठ कषायोंके उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं यह सिद्ध हुआ। शंका-यहाँ स्वस्थानमें ही असंयम प्राप्त कराकर स्वामित्वका कथन क्यों नहीं किया ? समाधान नहीं, क्योंकि यदि इस जीवको स्वस्थानमें ही असंयम प्राप्त कराते हैं तो अन्तर्मुहूर्त काल पहलेसे ही इसे संक्लेशकी प्राप्ति करानी होगी जिससे इतने कालसे सम्बन्ध रखनेवाली गुणश्रेणिका लाभ न मिल सकेगा, अतः स्वस्थानमें ही असंयम प्राप्त कराकर स्वामित्वका कथन न करके इसे देवोंमें उत्पन्न कराया गया है। शंका-यहाँ शिष्यका कहना है कि पीछे जो क्रम कहा है इसके स्थानमें यदि उपशमश्रेणिकी अपेक्षा यह कथन किया जाय तो उदयसे झीनस्थितिवाले अधिक परमाणु प्राप्त हो सकते हैं और तब इन्हें उत्कृष्ट कहना ठीक होगा। खुलासा इस प्रकार है-गुणितकाशवाला जो जीव अतिशीघ्र कषायोंका उपशम करनेके लिये उद्यत हुआ। फिर अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर गुणश्रेणिको करता हुआ अपूर्वकरणके कालसे अनिवृत्तिकरणके कालको विशेषाधिक करके अनिवृत्तिकरणके कालका संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर तदनन्तर समयमें- अन्तरकरणका प्रारम्भ करता किन्तु ऐसा न करके मरा और देव हो गया उसके वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त १. 'अंतरकरणं होदि त्ति जायदेवस्स तं मुहुरांतो । अट्ठएहकसायाणं ।'-कर्मप्र० उदय गा० १४ । ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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