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________________ arww २६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ गुणसेढिसीसयमुदिण्णं ताधे उक्स्सयमुदयादो झीणहिदियं । एदं च पुचिल्लसव्वगुणसेढिसीसयदव्यादो विसोहिपाहम्मेण असंखेजगुणं, तम्हा एत्थोवसामित्तेण होदव्वं । जइ वि एसो अंतोमुहुत्तकालमुक्कड्डिय गुणसेढिदव्वमुवरि संछुहदि परपयडीसु च अधापवत्तसंकमेण संकामेदि तो वि एवं विणासिज्जमाणसव्वदव्वमप्पहाणं गुणसेढिसीसयस्स असंखेजभागत्तादो तिणेदं घडदे, देवेसुववज्जिय अंतोमुहुत्तकालमच्छमाणस्स ओकड्डुक्कड्डणादीहि गुणसेढिसीसयस्स असंखेजाणं भागाणं परिक्खयदंसणादो। ण चेदमसिद्ध, एदम्हादो चेव मुत्तादो तहाभावसाहणादो। ण च देवेसुप्पण्णपढमसमए चेव उवसामणगुणसेढिगोवुच्छावलंबणेण पयदसामित्तसमत्थणं पि समंजसं, तत्थतणगुणसे ढिगोवुच्छदव्वस्स दसणमोहक्वयगुणसैढिसीसयादो असंखेजगुणत्तणिण्णयादो । मुत्तयाराहिप्पाएण पुण दसणमोहक्खवयगुणसेढिसीसयस्सेव तत्तो असंखेज्जगुणत्तणिण्णयादो । अण्णहा तप्परिहारेणेत्थेव सामित्तविहाणाणुववत्तीदो । ण च दंसणमोहक्खवयगुणसेढिसीसएण सह तं घेत्तण सामित्तावलंबणं पि घडमाणयं गलिदसेससरूवदंसणमोहक्खवयगुणसेढिसीसयस्स तेत्तियमेत्तकालावहाणस्स अच्चंतमसंभवादो। तम्हा मुत्तत्तमेव सामित्तमविरुद्धं सिद्धं । अहवा णिवाघादेण सत्थाणे बाद जब गुणश्रोणिशीर्ष उदयको प्राप्त होता है तब उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं। और यह द्रव्य विशुद्धिकी अधिकतासे संचित होता है, इसलिये पिछले सब गुणश्रोणिशीर्षों के द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । इसलिये यहाँ अन्य कोई स्वामी न होकर उपशामक होना चाहिये । यद्यपि यह अन्तर्मुहूर्तकाल तक उत्कर्षण करके गुणनेणिके द्रव्यको ऊपर निक्षिप्त करता है और अधःप्रवृत्त संक्रमणके द्वारा पर प्रकृतियोंमें भी संक्रमित करता है तो भी इस प्रकारसे विनाशको प्राप्त होनेवाला यह सब द्रव्य अप्रधान है, क्योंकि यह गुणनोणिशीर्षके असंख्यातदेंभागप्रमाण है ? समाधान-सो यह कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि देवोंमें उत्पन्न होकर अन्तमुंहूर्तकालतक रहते हुए इसके अपकर्षण, उत्कर्षण आदिके द्वारा गुणश्रोणिशीर्षके असंख्यात बहुभागोंका क्षय देखा जाता है और यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि इसी सूत्रसे इसकी सिद्धि होती है। यदि कहा जाय कि देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही उपशमणिसम्बन्धी गोपुच्छोंके अवलम्बनसे प्रकृत स्वामित्वका समर्थन भी उचित है, क्योंकि यह बात निर्णीत-सी है कि वहाँ प्रथम समयमें जो गुणश्रोणिगोपुच्छका द्रव्य प्राप्त होता है वह दर्शनमोहनीयके क्षपणासम्बन्धी शीर्षसे असंख्यातगुणा होता है। सो ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि सूत्रकारके अभिप्रायसे तो दर्शनमोहनीयका क्षपणासम्बन्धी गुणणिशीर्ष ही उससे असंख्यातगुणा होता है यह बात निर्णीत है। यदि ऐसा न होता तो उपशमश्रेणिकी अपेक्षा स्वामित्वके कथनका त्याग करके सूत्र में दर्शनमोहनीयकी क्षपणाकी अपेक्षा ही स्वाभित्वका विधान नहीं बन सकता था। यदि कहा जाय कि दर्शनमोहके क्षपकसम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्षके साथ उपशमणिसम्बन्धी गुणश्रेणिको लेकर स्वामित्वका कथन बन जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहक्षपकसम्बन्धी गुणनेणिशीर्षका जो अंश गलकर शेष बचता है उसका चारित्रमोहनीयकी उपशामना होते हुए अन्तरकरणके काल के प्राप्त होनेके एक समय बादतक अवस्थित रहना अत्यन्त असम्भव है। इसलिये सूत्रमें जो स्वामित्व कहा है वही ठीक है यह बात सिद्ध हुई। अथवा निर्व्याघातसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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