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________________ गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणामीणचूलियाए सामित्तं २६६ चेव सामित्तमेत्थ सुत्तयाराहिप्पेदं । ण च उवसमसेढीए तहा संभवो, विरोहादो । तदो सत्थाणे चेव असंजम णेदण सामितमेदं वत्तव्यमिदि । यहाँ स्वस्थानमें ही स्वामित्व सूत्रकारको अभिप्रेत है। किन्तु उपशमश्रेणिमें इस प्रकारसे स्वामित्वकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है, इसलिये स्वस्थानमें ही असंयमको प्राप्त कराके इस स्वामित्वका कथन करना चाहिये। विशेषार्थ-यहां अाठ कषायोंके उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंके स्वामीका निर्देश करते हुए सूत्र में तो केवल इतना ही कहा है कि जो गुणितकमांशवाला जीव संयमासंयम, संयम और दर्शनमोहक्षपकसम्बन्धी गुणश्रेणियोंको करके जब असंयमभावको प्राप्त होता है तब उसके प्रथम समयमें इन तीनों गुणश्रेणियोंके शीर्षके उदय होने पर उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है। किन्तु इसका व्याख्यान करते हुए वीरसेन स्वामीने इतना विशेष बतलाया है कि ऐसे जीवको देवपर्यायमें ले जाकर वहां प्रथम समयमें गुणश्रेणिशीर्षोंके उदयको प्राप्त होने पर उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये। उन्होंने इस व्यवस्थासे यह लाभ बतलाया है कि ऐसा करनेसे असंयमकी प्राप्तिके लिये अन्तर्मुहूर्तप्रमाण संक्लेशपूरण काल बच जाता है। जिससे अधिक गुणनेणिका लाभ मिल जाता है। अब यदि इसे देवपयोयमें न ले जाकर स्वस्थानमें ही असंयमभावकी प्राप्ति कराई जाती है तो एक अन्तर्मुहूर्त पहलेसे गुणश्रेणिका कार्य बन्द हो जायगा जिससे लाभके स्थानमें हानि होगी, इसलिये असंयमभावकी प्राप्तिके समय इसे देवपर्यायमें ले जाना ही उचित है । यह वह व्याख्यान है जिसपर टीका में अधिक जोर दिया गया है। इसके बाद एक दूसरे प्रकारसे उत्कृष्ट स्वामित्वकी उपस्थापना करके उसका खण्डन किया गया है। यह मत धवला सत्कर्ममहाधिकारके उदयप्रकरणमें और श्वेताम्बर कर्मप्रकृति व पंचसंग्रहमें पाया जाता है। इसका आशय यह है कि कोई एक गुणितकर्माशवाला जीव उपशमश्रेणिपर चढ़ा और वहां अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरणमें अन्तरकरण क्रियाके पहले तक उसने गुणश्रेणि रचना की। इसके बाद मरकर वह देव हो गया। इसप्रकार इस देवके अन्तर्मुहूर्तमें जब गुणश्रेणिशीर्षका उदय होता है तब उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है। बात यह है कि दर्शनमोहक्षपकगुणश्रेणिसे उपशामकगुणश्रेणि असंख्यातगुणी बतलाई है, इसलिये इस कथनको पूर्वोक्त कथनसे अधिक बल प्राप्त हो जाता है। तथापि टीकामें यह कहकर इस मतको अस्वीकार किया गया है कि देव होने के बाद बीचका जो अन्तर्मुहूर्त काल है उस कालमें अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण आदिके द्वारा गुणश्रेणिके बहुभाग द्रव्यका अभाव हो जाता है, इसलिये इस स्थलपर उत्कृष्ट स्वामित्व न बतलाकर चूर्णिसूत्रकारके अभिप्रायानुसार ही उत्कृष्ट स्वामित्व बतलाना ठीक है। वैसे तो इन दोनों मतोंपर विचार करनेसे यह प्रतीत होता है कि ये दोनों ही मत भिन्न-भिन्न दो परम्पराओंके द्योतक हैं, अतएव अपने-अपने स्थानमें इन दोनोंको ही प्रमाण मानना उचित है। यद्यपि इनमें से कोई एक मत सही होगा पर इस समय इसका निर्णय करना कठिन है। इसीप्रकार टीकामें यह मत भी दिया है कि उपशमश्रेणिमें पूर्वोक्त प्रकारसे मरकर जो देव होता है उसके प्रथम समयमें जो आठ कषायोंका द्रव्य उदयमें आता है वह पूर्वोक्त तीन गुणश्रेणिशीर्षों के द्रव्यसे अधिक होता है, इसलिये उत्कृष्ट स्वामित्व तीन गुणश्रेणिशीर्षोंके उदयमें न प्राप्त होकर उपशमश्रेणिमें मरकर देवपर्याय प्राप्त होनेके प्रथम समयमें प्राप्त होता पर टीकामें इस मतका भी यह कहकर निराकरण किया गया है कि सूत्रकारका यह अभिप्राय नहीं है, क्योंकि सूत्रकार तीन गुणश्रेणिशीर्षों के द्रव्यको इससे अधिक मानते हैं। तभी तो उन्होंने तीन गुणश्रेणिशीर्षों से उदयमें उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान किया है। इसके साथ ही साथ प्रसंगसे इन दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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