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________________ जयधवलाहिदे कसायपाहुडे [ पदेसवित्ती * कोहसंजलणस्स उक्कस्सयमोकड्डुणादितिरहं पि भीषद्विदियं कस्स ? ३०० ५०७ सुगमं । ॐ गुणिदकम्मंसियस्स कोधं खवेंतस्स चरिमडिदिखंडय चरिमसमए असंच्छुहमाणयस्स उक्कस्लयं तिरहं पि भी हिदियं । ५०८. एत्थ चरिमडिदिखंडयचरिमसमयअसंलुहमाणयस्से त्ति वुत्ते गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सव्वलहुं कसायक्खवणाए अन्भुट्टिदस्स को पढमहिदि गुणसेढिया रेणावद्विदं समयाहियोदयावलियवज्जं सव्वमधद्विदीए गालिय कोहवेदगचरिमसमए से काले माणवेदओ होहदि त्ति कोहचरिमडिदिकंडयचरिमसमयअसंछोहयभावेणावद्विदस्स आवलियपइडगुणसेढिगोवुच्छाओ गुणसेढिसीसएण सह आपत्तियों का और निराकरण करके टीकामें प्रकारान्तरसे सूत्रकार के अभिप्रायकी पुष्टि की गई है । प्रथम आपत्ति तो यह है कि पूर्वोक्त तीन गुण खिशीर्षो में अनन्तानुबन्धीविसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्ष को मिलाकर इन चारोंके उदयमें उत्कृष्ट स्वामित्व कहना अधिक उपयुक्त होता । पर यह कथन इसलिये नहीं बनता कि अनन्तानुबन्धीविसंयोजनागुणश्र णिका काल इतना बड़ा नहीं है कि उसका सद्भाव दर्शनमोहक्षपणा के बाद तक रहा आवे, इसलिये तो पहली आपत्तिका निराकरण हो जाता है। तथा दूसरी आपत्ति यह है कि दर्शन मोक्षाणासम्बन्धी गुण णिको उपशमश्र णिसम्बन्धीगुणश्र णिके साथ मिलाकर उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं कहा ? इसका भी यही कहकर निराकरण किया गया है कि दर्शनमोहक्षपणासम्बन्धी गुणश्रेणि उपशमन णिसम्बन्धी गुणश्रेणिके उक्त काल तक रह नहीं सकती, अतः यह कथन भी नहीं बनता । अन्तमें प्रकारान्तरसे जो सूत्रकारके अभिप्रायका समर्थन किया है उससे ऐसा ज्ञात होता है। कि सूत्रकारको स्वस्थानमें ही उत्कृष्ट स्वामित्व इष्ट रहा है । यदि उन्हें देवपर्याय में ले जाकर स्वामित्वका कथन करना इष्ट होता तो वे सूत्रमें इसका स्पष्ट उल्लेख करते । * क्रोधसंज्वलन के अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओं का स्वामी कौन है ? $ ५०७. यह सूत्र सुगम है । * जो गुणित कर्माशवाला जीव क्रोधका क्षय कर रहा है । पर ऐसा करते हुए जिसने अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें पहुंचकर भी अभी उसका पतन नहीं किया है वह उक्त तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है । $ ५०८. यहां 'अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें जिसने उसका पतन किया है। उसके ऐसा कथन करनेसे यह अभिप्राय लेना चाहिये कि गुणितकर्माशकी विधिसे आकर जो अतिशीघ्र कषायकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ है और ऐसा करते हुए एक समय अधिक एक वलिके सिवा क्रोधकी गुणश्रेणिरूपसे स्थित शेष सब प्रथम स्थितिको अधःस्थिति द्वारा गलाकर जो क्रोधवेदकके अन्तिम समय में स्थित है उसके गुणश्रेणिशीर्षके साथ आवलिके भीतर प्रविष्ट हुईं गुणश्र णिगोपुच्छाओं के रहते हुए प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है । यह जीव अगले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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