SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०१ गा० २२] पदेसवित्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं सामित्तं वट्टमाणाओ घेतूण पयदुक्कस्ससामित्तं होदि त्ति घेत्तव्वं । ५०६. ण एत्थ गुणसेढिसीसयस्स बहिब्भावो ति पढमसमयमाणवेदयम्मि समयूणुच्छिहावलियमेत्तद्विदीओ घेत्तूण सामित्तं दायव्वमिदि संकणिज्जं, उप्पायाणुच्छेयमस्सिदूण गुणसेढिसीसयस्स वि एत्यंतब्भावुवलंभादो। एवमेवं चेय घेत्तव्वं, अण्णहा तस्सेव उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं परूविस्समाणेणुत्तरमुत्तेण सह विरोहादो। अहबा दबहियणयावलंबीभूदपुव्वगइणायावलंबणेण पढमसमयमाणवेदयस्सेव कोहचरिमहिदिखंडयचरिमसमयअसंछोहयत्तं परूवेदव्वं । ण च एवं संते उवरिमसुत्तत्थो दुग्घडो, भयणवाईणमम्हाणं तत्थ अणुप्पायाणुच्छेदं पज्जवहियणयणियमेण समवलंबिय घडावणादो । एदमत्थपदमुवरिमाणंतरसुत्तेसु वि जोजेयव्वं ।। समयमें मानवेदक होगा, इसलिये यह समय क्रोधके अन्तिम स्थितिकाण्डकका अन्तिम समय होनेसे अभी इसके अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन नहीं हुआ है। ६५०९. यकि कोई यहां ऐसी आशंका करे कि यहां गुणश्रेणिशीर्ष बहिभूत है, इसलिये मानवेदकके प्रथम समयमें एक समय कम उच्छिष्टावलिप्रमाण स्थितियोंकी अपेक्षा स्वामित्वका विधान करना चाहिये सो उसकी ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा गुणश्रेणिशीर्षका भी यहां अन्तर्भाव पाया जाता है। और यह अर्थ प्रकृतमें इसी रूपसे लेना चाहिये, अन्यथा आगे जो यह सूत्र आया है कि 'इसी जीवके उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं' सो इसके साथ विरोध प्राप्त होता है। अथवा द्रव्यार्थिक नयका आलम्बनभूत भूतपूर्वगति न्यायका सहारा लेकर प्रथम समयवर्ती मानवेदकके ही अपने अम्तिम समयवर्ती क्रोधके अन्तिम स्थितिकाण्डकका सद्भाव कहना चाहिये। यदि कहा जाय कि ऐसा मानने पर आगेके सूत्रका अर्थ घटित करना कठिन हो जायगा सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि हम लोग तो भजनावादी हैं, इसलिए पर्यायार्थिक नयके नियमानुसार अनुत्पादानुच्छेदका आलम्बन लेकर उक्त अर्थ घटित कर दिया जायगा। इस अर्थ पदको आगेके अन्तरवर्ती सूत्रोंमें भी घटित कर लेना चाहिये। विशेषार्थ-वस्तुस्थिति यह है कि जो गुणितकर्माशवाला जीव क्षपणाके समय क्रोधवेदकके कालको बिताकर मानवेदकके कालमें स्थित है वह क्रोधसंज्वलनके अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितियाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है। किन्तु यहां सूत्र में यह स्वामित्व क्रोधवेदकके अन्तिम समयमें ही बतलाया गया है जिसे घटित करनेमें बड़ी कठिनाई जाती है। बल्कि एक शंकाकारने तो इस सुत्र प्रतिपादित विषयका प्रकारान्तरसे खण्डनही कर दिया है। वह कहता है कि यहां गुणोणिशीर्षकी तो चर्चा ही छोड़ देनी चाहिये। उत्कृष्ट स्वामित्वका जितना भी द्रव्य है उसमें इसका सद्भाव तो कथमपि नहीं किया जा सकता। हां मानवेदकके प्रथम समयमें जो एक समय कम उच्छिष्टावलिप्रमाण द्रव्य शेष रहता है उसकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कहना ठीक है। पर टीकाकारने इस विरोधको दो प्रकारसे शमन किया है। (१) प्रथम तो उन्होंने उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षासे इस विरोधको शान्त किया है। उत्पादनानुच्छेद द्रव्यार्थिक नयको कहते हैं । यह सत्त्वावस्थामें ही विनाशको स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें सूक्ष्म लोभका उदय है पर वहां उसकी उदयव्युच्छित्ति बतलाई जाती हैं सो यह कथन उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षासे जानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy