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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं २८३ परमाओंका स्वामी बतलाते हुए जो कुछ लिखा है उसका आशय यह है कि ऐसा जीव एक तो गुणितकौशवाला होना चाहिये, क्योंकि अन्य जीवके कर्मपरमाणुओंका उत्कृष्ट संचय नहीं हो सकता। दूसरे गुणितकर्माश होनेके बाद यथासम्भव अतिशीघ्र संयमासंयम और तदनन्तर संयमकी प्राप्ति कराकर इसे एकान्तवृद्धि परिणामों के द्वारा संयमासंयम गुणश्रेणि और संयमगुणश्रेणिकी प्राप्ति करा देनी चाहिये। किन्तु इनकी प्राप्ति इस ढंगसे करानी चाहिये जिससे इन दोनों गुणश्रेणियोंका शीर्ष एक समयवर्ती हो जाय । फिर गुणश्रेणिशीर्षों के उपान्त्य समयके प्राप्त होने तक जीवको वहीं संयमभाव के साथ रहने देना चाहिये । किन्तु जब तक यह जीव संयमभावके साथ रहे तब तक भी इसके गुणनेणिका क्रम चालू ही रखना चाहिये, क्योंकि जब तक संयमासंयमरूप या संयमरूप परिणाम बने रहते हैं तब तक गुणश्रेणिरचनाके चालू रहनेमें कोई बाधा नहीं आती। बात इतनी है कि इन दोनों भावोंकी प्राप्ति होनेके प्रथम समयसे एकान्तवृद्धिरूप परिणाम होते हैं, इसलिये इनके निमित्तसे गुणश्रेणिरचना होती है और बादमें अधःप्रवृत्तसंयमासंयम या अधःप्रवृत्तसंयमरूप अवस्था आ जाती है, इसलिये इनके निमित्तसे गुणश्रेणि रचना होने लगती है। जिन परिणामोंकी अन्तर्मुहूर्त काल तक उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि होती जाती है और जिनके होनेपर स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात तथा स्थितिबन्धापसरण ये क्रियाएँ पूर्ववत् चालू रहती हैं वे एकान्तवृद्धिरूप परिणाम हैं। तथा जिनके होने पर स्वस्थानके योग्य संक्लेश और विशुद्धि होती रहती है वे अधःप्रवृत्त परिणाम हैं। एकान्तवृद्धिरूप परिणामोंके होने पर मिथ्यात्वकर्मकी अपेक्षा गुणश्रेणिरचनाका क्रम इस प्रकार है संयमासंयमगुणको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें उपरिम स्थितिमें स्थित द्रव्यका अपकर्षण करके उदयावलिके बाहर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितियोंमें गुणश्रेणिशीर्षतक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे द्रव्यका निक्षेप करता है। अर्थात् उदयावलिके बाहर अनन्तर स्थित स्थितिमें जितने द्रव्यका निक्षेप करता है उससे अगली स्थितिमें उससे भी असंख्यातगुणे द्रव्यका निक्षेप करता है। इस प्रकार यह क्रम गुणश्रेणिशीर्ष तक जानना चाहिये। किन्तु गुणश्रेणिशीर्षसे अगली स्थितिमें असंख्यातगुणे हीन द्रव्यका निक्षेप करता है और इसके आगे विशेष हीन द्रव्यका निक्षेप करता है। दूसरे समयमें प्रथम समयकी अपेक्षा भी असंख्यातगुणे द्रव्यका पूर्वोक्त क्रमसे निक्षेप करता है। इस प्रकार एकान्तानुवृद्धिका काल समाप्त होने तक यही क्रम चालू रहता है। किन्तु अधःप्रवृत्तरूप परिणामोंकी अपेक्षा गुणश्रेणिरचनाके क्रममें कुछ अन्तर है। बात यह है कि अधःप्रवृत्तरूप परिणाम सदा एकसे नहीं रहते किन्तु संक्लेश और विशुद्धिके अनुसार उनमें घटाबढ़ी हुआ करती है, इसलिये जब जैसे परिणाम होते हैं तब उन परिणामोंके अनुसार गुणश्रेणि रचनामें भी कर्म परमाणु न्यूनाधिक प्राप्त होते हैं। विशुद्धिकी न्यूनाधिकताके अनुसार कभी प्रति समय असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणि रचना करता है। कभी प्रति समय संख्यातगुणे संख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणि रचना करता है। इसी प्रकार कभी प्रति समय संख्यातवें भाग अधिक या कभी असंख्यातवें भाग अधिक द्रव्यका अपकर्षण करके गुणनोणि रचना करता है। और यदि संक्लेशरूप परिणाम हुए तो उनमें भी जब जैसी न्यूनाधिकता होती है उसके अनुसार कभी असंख्यातगुणे हीन कभी संख्यातगुणे हीन और कभी संख्यातवें भाग हीन और कभी असंख्यातवें भाग हीन द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणिरचना करता है। इस प्रकार संयमासंयम और संयमके अन्त तक यह क्रम चालू रहता है। यदि संयमासंयम या संयमसे च्युत होकर अतिशीघ्र इन भावोंको जीव पुनः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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