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________________ २८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ॐ सम्मत्तस उक्कस्सयमोकडणादो उक्कड्डणादो संकमणादो उदयादो च झीणहिदियं कस्स। ४८६. सुगममेदं पुच्छासुतं । णवरि उदयावलियबाहिरहिदिसमवद्विदस्स सम्मत्तपदेसाणं बज्झमाणमिच्छत्तस्सुवरि समहिदीए संकेताणमुक्कड्डणासंभवं पेक्खियूण सम्मत्तस्स तत्तो झीणाझीणहिदियत्तमेत्थ घेत्तव्वं, अण्णहा तदणुववत्तीदो। ॐ गुणिदकम्मसिनो सव्वलहुं दसणमोहणीयं कम्म खवेदुमाढत्तो प्राप्त करता है तो एकान्तवृद्धिरूप परिणाम और उनके कार्य नहीं होते। यहाँ एकान्तवृद्धिमें उत्तरोत्तर प्रति समय अनन्तगुणी परिणामोंकी विशुद्धि होती जाती है, इसलिये संयमासंयमी और संयमीके इन परिणामों के अन्तमें जो गुणश्रेणिशीर्ष होते हैं उनकी अपेक्षा यहाँ उत्कृष्ट स्वामित्व कहा है अथवा यद्यपि अधःप्रवृत्तरूप परिणाम घटते बढ़ते रहते हैं तथापि सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिके कारणभूत ये परिणाम अन्तिम समयमें होनेवाले एकान्तवृद्धिरूप परिणामोंसे भी अनन्तगुणे होते हैं, अतः इन परिणामोंके निमित्तसे जो गुणश्रोणिशीर्ष प्राप्त हों उनकी अपेक्षा यहाँ उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये। इस प्रकार मिथ्यात्वकी अपेक्षा उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका उत्कृष्ट स्वामी कौन है इसका विचार किया। यहाँ उत्कृष्ट स्वामित्वका विचार करते हुए टीकामें अनेक शंका प्रतिशंकाएँ की गई हैं पर उनका विचार वहाँ किया ही है, अतः उनका यहाँ निर्देश नहीं किया। * सम्यक्त्वके अपकर्षणसे, उत्कर्षणसे संक्रमणसे और उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है । ६४८६. यह पृच्छासूत्र सरल है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उदयावलिके बाहरकी स्थिति में स्थित जो सम्यक्त्वके प्रदेश बंधनेवाले मिथ्यात्वके ऊपर समान स्थितिमें संक्रान्त होते हैं उनका उत्कर्षण सम्भव है इसी अपेक्षासे ही यहाँ सम्यक्त्वके उत्कर्षणसे झीनाझीनस्थितिपनेका ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा सम्यक्त्वक उत्कर्षणसे झीनाझीनस्थितिपना नहीं बन सकता। विशेषार्थ—सम्यक्त्व यह बँधनेवाली प्रकृति नहीं है, इसलिये इसका अपने बन्धकी अपेक्षा उत्कर्षण ही सम्भव नहीं है। हाँ मिथ्यात्वके बन्धकालमें सम्यक्त्वके कर्मपरमाणुओंका मिथ्यात्वमें संक्रमण होकर उनका उत्कर्षण हो सकता है । यद्यपि यह संक्रमित द्रव्य मिथ्यात्वका एक हिस्सा हो गया है तथापि पूर्वमें ये सम्यक्त्वके परमाणु रहे इस अपेक्षासे इस उत्कर्षणको सम्यक्त्वके कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण कहने में भी आपत्ति नहीं। इस प्रकार इस अपेक्षासे सम्यक्त्वके परमाणुओंका उत्कर्षण मानकर फिर यह विचार किया गया है कि सम्यक्त्वके कौनसे कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले हैं और कौनसे कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे अमीन स्थिातेवाले हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो सम्यक्त्व प्रकृतिके कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण ही घटित नहीं होता है। और तब फिर सम्यक्त्वका उत्कर्षणसे झीनाझीन स्थितिपना भी कैसे बन सकता है। अर्थात् नहीं बन सकता है। इसलिये सम्यक्त्वके उत्कर्षणकी व्यवस्था उक्त प्रकारसे करके ही झीनाझीनस्थितिपनेका विचार करना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * जिस गुणित कर्मोशवाले जीवने अतिशीघ्र दर्शनमोहनीय कर्मके क्षय करनेका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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