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________________ गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं २८५ अघडिदियं गलतं जाधे उदयावलियं पविस्समाणं पविताधे उक्कस्सयमोकड्डणादो वि उक्कड्डणादो वि संकमणादो वि झीणहिदियं । ___६४६०. एदस्स तिण्हं झीणहिदियाणं सामित्तपरूवणासुत्तस्स अत्थो-जो गुणिदकम्मंसिओ पुव्वविहाणेणागदो सव्वलहुं दंसणमोहणीयं कम्म खवेदुमाढत्तो अपुचअणियट्टिकरणपरिणामेहि बहुएहि हिदिअणुभागखंडएहि मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते संछुहिय पुणो तं पि पलिदोवमस्स असंखे० भागमेत्तचरिमहिदिखंडयचरिमफालिसरूवेण सम्मत्ते संछुहंतो सम्मत्तस्स वि तत्कालिएण द्विदिखंड एण पलिदोवमासंखेजदि भागिएण अहवस्समेत्तहिदिसंतकम्मावसेसं काऊण तत्थ संछुहिय पुणो वि संखेजहिदिखंडयसहस्सेहि सम्मत्तहिदिमइदहरीकरिय कदकरणिज्जो होदूणावहिदो तस्स अधद्विदियं गलतं सम्मत्तं जाधे कयेण उदयावलियं पविसमाणं संतं णिरवसेसं पइ ताधे आवलियमेत्तगुणसे ढिगोवुच्छा ओदरिय अवहिदस्स ओकड्डणादो वि उक्कड्डणादो वि संकमणादो वि झीणहिदियं पदेसग होइ । एत्थ उदयावलियं पविसमाणं पविटमिदि वयणमक्कमपवेसासंकाणिरायरणदुवारेण कम्मपदेसप्पदुप्पायण दहव्वं । सेसं सुगमं । आरम्भ किया है उसके अधःस्थितिके द्वारा गलता हुआ सम्यक्त्व जब उदयापलिमें प्रवेश करता है तब वह अपकर्षणसे, उत्कर्षणसे और संक्रमणसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कमेपरमाणुओंका स्वामी होता है। ६४६०. अब तीन झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके स्वामित्वका कथन करनेवाले इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-पूर्वविधिसे आये हुए गुणितकर्मांशवाले जिस जीवने अतिशीघ्र दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयका आरम्भ करके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके निमित्तसे बहुतसे स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोंके द्वारा मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमित किया। फिर सम्यग्मिथ्यात्वको भी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिरूपसे सम्यक्त्वमें संक्रषित किया। फिर सम्यक्त्वका भी उसी समय होनेवाले पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिका डकके द्वारा आठ वर्षप्रमाण स्थिति सत्कर्म शेष रखकर शेषको उसी शेष स्थितिमें निक्षिप्त किया। इसके बाद फिर भी संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके द्वारा सम्यक्त्व की स्थितिको अत्यन्त हस्व करके जो कृतकृत्य होकर स्थित हुआ उसके अधःस्थितिके द्वारा गलता हुआ सम्यक्त्व जब क्रमसे उद्यावलिमें पूराका पूरा प्रवेश कर जाता है तब एक आवलिप्रमाण गोपुच्छा उतर कर स्थित हुए इस जीवके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण इन तीनोंसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं। यहाँ सूत्र में जो 'उद्यावलियं पविसमाणं पविट्ठ' यह वचन कहा है सो यह युगपत् प्रवेशकी आशंकाके निराकरण द्वारा क्रमसे होनेवाले प्रवेशका सूचन करनेके लिये जानना चाहिये। शेष कथन सुगम है। विशेषार्थ-इस सूत्रमें अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा सम्यक्त्वके झीन स्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंके स्वामीका निर्देश किया है। यद्यपि यहाँ जो दृष्टान्त दिया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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