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________________ २८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ४६१. संपहि उदयादो उक्कस्सझीणहिदियस्स सामित्तविसेसपरूवणमुत्तरमुत्तस्सावयारो * तस्लेव चरिमसमयअक्खीणदसणमोहणीयस्स सव्वमुदयं तमुक्कस्सयमदयादो झीणहिदियं । . ___४६२. तस्सेव पुचपरूविदजीवस्स पुणो वि गालिदसमयूणावलियमेत्तगोवुच्छस्स चरिमसमय अक्खीणदसणमोहणीयभावे वट्टमाणस्स ज सव्वमुदयं तं पदेसगं तमुक्कस्सयमुदयादो झीगहिदियमिदि सुतत्थसंबंधो । एत्थ सबमुदयं तमिदि वुत्ते सर्वेषामुदयानामन्त्यं निःपश्चिममुदयप्रदेशाग्र सर्वोदयान्त्यमिति व्याख्येयं । कुदो पुण एदस्स सव्वोदयंतस्स सव्वुक्कस्सत्तं ? ण, दंसणमोहणीयदव्वस्स सव्वस्सेव त्थोवणस्स पुजीभूदस्सेत्थुवलंभादो। तदो चेयं पाठंतरमवलंबिय वक्खाणंतरमेत्थ चरिमसमयअक्खीणं जं दंसणमोहणीयं तस्स जो सव्वोदो अविवक्खियकिंचूणभावो तं घेत्तूण उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं होदि ति । वह दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समयका है और तब न तो सम्यक्त्वका संक्रमण ही होता है और न उत्कर्षण ही। तथापि उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणु इन तीनोंके अयोग्य है इस सामान्य कथनके अनुसार उनका उत्कृष्ट प्रमाण कहाँ प्राप्त होता है इस विवक्षासे यह स्वामित्व जानना चाहिये। __६४६१. अव उदयसे उत्कृष्ट झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके स्वामित्वविशेषका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं___* जिसने दर्शनमोहनीयकी पूरी क्षपणा नहीं की है ऐसे उसी जीवके दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके अन्तिम समयमें जो सब कर्मपरमाणु उदयमें आते हैं वे उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु हैं । ६४६२. जिसने और मी एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको गला दिया है और दर्शनमोहनीयकी पूरी क्षपणा न होनेसे उसके अन्तिम समयमें विद्यमान है ऐसे उसी पूर्वमें कहे गये जीवके जो सम्यक्त्वके सब कर्मपरमाणु उद्यमें आते हैं वे उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु हैं यह इस सूत्रका अभिप्राय है। यहाँ सूत्र में जो 'सव्वमुदयं तं, ऐसा कहा है सो इस पदका ऐसा व्याख्यान करना चाहिये कि सब उदयोंके अन्तमें जो कर्मपरमाणु हैं वे यहाँ लिये गये हैं। शंका-सब उदयोंके अन्तमें स्थित ये कर्मपरमाणु सबसे उत्कृष्ट कैसे है ? समाधान-नहीं, क्योंकि दर्शनमोहनीयका कुछ कम सब द्रव्य एकत्रित होकर यहाँ पाया जाता है, इसलिये ये कर्मपरमाणु सबसे उत्कृष्ट हैं। उक्त सूत्रका यह एक व्याख्यान हुआ। अब पाठान्तरका अवलम्ब लेकर इसका दूसरा व्याख्यान करते हैं। यथा-अन्तिम समयमें जो अक्षीण दर्शनमोहनीय है उसका जो सर्वोदय है उसकी अपेक्षा उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कम परमाणु होते हैं । यहाँ किंचित् ऊनपनेकी विवक्षा न करके सर्वोदय पदका प्रयोग किया है इतना विशेष जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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