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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणामीणचूलियाए सामित्तं
® सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सयमोकड्णादो उक्कडणादो संकमणादो च झीणहिदियं कस्स।
४६३. सुगममेदं पुच्छासुतं । गवरि सम्मत्तस्सेव एत्थ उक्कड्डणादो झीणहिदियस्स संभवो वत्तव्यो।
* गुणिदकम्मंसियस्स सव्वलहुं दसणमोहणीयं खवमाणस्स सम्मामिच्छत्तस्स अपच्छिमहिदिखंडयं संछुभमाणयं संछुद्धमुदयावलिया उदयवज्जा
विशेषार्थ-प्रकृत सूत्रमें सम्यक्त्वकी अपेक्षा उदयसे झीन स्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है यह बतलाया है। गुणितकांशकी विधिसे आकर जिसने अतिशीघ्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ किया है वह पहले मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें और सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमें प्रक्षिप्त करनेके बाद कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होता है। फिर सम्यक्त्वको अधःस्थितिके द्वारा गलाता हुआ क्रमसे उदयके अन्तिम समयको प्राप्त होता है । इस प्रकार इस उदय समयमें सम्यक्त्वका जितना द्रव्य पाया जाता है उतना अन्यत्र सम्भव नहीं, इसलिये इसे उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी बतलाया है। यहाँ सूत्र में आये हुए 'चरिमसमयअक्खीणदसणमोहणीयल्स सव्वमुदयं इसके दो पाठ मानकर दो अर्थ सूचित किये गये हैं। प्रथम पाठ तो यही है और इसके अनुसार 'चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स' यह सूत्र में आये हुए तिस्सेव' पदका विशेषण हो जाता है और 'सव्वमुदयं' पाठ स्वतन्त्र हो जाता है। किन्तु दूसरा पाठ 'चरिमसमयअक्खीणदसणमोहणीयसव्वोदयं' ध्वनित होता है ! और इसके अनुसार 'अन्तिम समयमें अक्षीण जो दर्शनमोहनीय उसका जो सर्वोदय उसकी अपेक्षा' यह अर्थ प्राप्त होता है। मालूम होता है कि ये दो पाठ टीकाकारने दो भिन्न प्रतियोंके आधारसे सूचित किये हैं। फिर भी वे प्रथम पाठ को मुख्य मानते रहे, इसलिये उसे प्रथम स्थान दिया और पाठान्तररूपसे दूसरेकी सूचना की। यहाँ पाठ कोई भी विवक्षित रहे तब भी निष्कर्षमें कोई फरक नहीं पड़ता, क्योंकि यह दोनों ही पाठोंका निष्कर्ष है कि इस प्रकार सम्यक्त्वकी क्षपणाके अन्तिम समयमें जो उदयगत कर्मपरमाणु प्राप्त होते हैं वे उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु हैं। ____ * सम्यग्मिथ्यात्वके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणसे झीन स्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ।
४६३. यह पृच्छासूत्र सुगम है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ पर सम्यक्त्वके समान ही उत्कर्षणसे झीनस्थितिपनेके सद्भावका कथन करना चाहिये । आशय यह है सम्यक्त्वके समान सम्यग्मिथ्यात्वका भी बन्ध नहीं होता, इसलिये अपने बन्धकी अपेक्षा इसका उत्कर्षण नहीं बन सकता। अतएव जिस क्रमसे सम्यक्त्वमें उत्कर्षण घटित करके बतला आये हैं वैसे ही सम्यग्मिथ्यात्वमें घटित कर लेना चाहिये।
* अति शीघ्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले गुणितकर्माशवाले जिस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकका क्रमसे क्षेपण हो गया है और
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