SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सम्मत्तथिवुक्कसंकममस्सियूण लाहदसणादो। अण्णं च आवलियमेत्तकालावसेसे मिच्छत्तं गच्छमाणो पुवमेव संकिलिस्सदि ति विसोहिणिबंधणो गुणसेढिलाहो बहुओ ण लब्भदि । ण च संकिलेसावूरणेण विणा मिच्छत्ताहिमुहभावसंभवो, तस्स तदविणाभावित्तादो। तेण कारणेण जाव गुणसेढिसीसयाणि दुचरिमसमयअणुदिण्णाणि ताव संजदभाबणच्छाविय पुणो से काले एगंताणुवडिचरिमगुणसे ढिसीसयाणि दो वि एकलग्गाणि उदयमागच्छिहिति त्ति मिच्छत्तं गदपढमसमए उकस्सयउदयादो झीणहिदियस्स सामित्तं दिण्णं । एत्थ पमाणाणुगमो जाणिय काययो। अहवा गुणसे ढिसीसयाणि त्ति वुत्ते दोण्हमोघचरिमगुणसेढिसीसयाणि सव्वुकस्सविसोहिणिबंधणाणि घेप्पंति ण एयंतवडावडिचरिमगुणसेढिसीसयाणि, तत्थतणचरिमविसोहीदो अधापवत्तसंजदसत्थाणविसोहीए अणंतगुणत्तादो। ण चेदं णिण्णिबंधणं, लद्धिहाणपरूवणाए परूविस्समाणप्पाबहुअणिबंधणत्तादो। तदो ओघचरिमसंजदासंजदगुणसेढिसीसयस्सुवरि सबविसुद्धसंजदणिक्खित्तगुणसे ढिसीसयमेत्थ घेत्तव्यं । एवं घेतूण एदमणंतगुणविसोहीए कदगुणसेढिसीसयदव्वं संजदासजदगुणसेढिसीसएण सह जाधे पढमसमयमिच्छादिहिस्स उदयमागयं ताधे उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियमिदि सामित्तं वत्तव्यं । नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्वसम्बन्धी स्तिवुक संक्रमणकी अपेक्षा लाभ देखा जाता है। दूसरे एक आवलिकालके शेष रहने पर यदि इस जावको मिथ्यात्वमें ले जाते हैं तो वह पहलेसे संक्लिष्ट हो जायगा और ऐसी हालतमें विशुद्धिनिमित्तक अधिक गुणश्रेणिका लाभ नहीं हो सकेगा। यदि कहा जाय कि संक्लेशरूप परिणाम हुए बिना ही मिथ्यात्वके अनुकूल भाव हो सकते हैं सो भी बात नहीं है, क्योंकि इन दोनोंका परस्परमें अविनाभाव सम्बन्ध है, इसलिये जब तक गुणश्रेणिशीर्ष उदयके उपान्त्य समयको नहीं प्राप्त होते तब तक इस जीवको संयत ही रहने दे। किन्तु तदनन्तर समयमें एकान्तानुवृद्धिके अन्तिम समयमें की गई दोनों ही गुणश्रेणियाँ उदयको प्राप्त होंगी, इसलिये मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें ही उदयसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमणुओंका स्वामी बतलाया है। यहाँ इनके प्रमाणका विचार जानकर कर लेना चाहिये। अथवा गुणश्रेणिशीर्ष ऐसा कहने पर संयमासंययम और संयम इन दोनों अवस्थाओंके सबसे उत्कृष्ट विशुद्धिके निमित्तसे अन्तमें होनेवाले ओघ गुणश्रेणिशीर्ष लेने चाहिये, एकान्तवृद्धिके अन्तमें होनेवाले गुणश्रेणिणीर्ष नहीं, क्योंकि एकान्तवृद्धिके अन्तमें होनेवाली विशुद्धिसे अधःप्रवृत्तसंयतकी स्वस्थानविशुद्धि अनन्तगुणी होती है। यदि कहा जाय कि यह कथन अहेतुक है सो भी बात नहीं है, क्योंकि लब्धिस्थानोंका कथन करते समय जो अल्पबहुत्व कहा है उससे इसकी पुष्टि होती है, इसलिये ओघसे अन्तमें प्राप्त हुए संयतासंयतके गुणश्रेणिशीर्षके ऊपर सर्वविशुद्ध संयतके प्राप्त हुआ गुणश्रेणिशीर्षका यहाँ पर ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार अनन्तगुणी विशुद्धिसे निष्पन्न हुआ यह गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्य संयतासंयतसम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्षके साथ जब मिथ्यात्वके प्रथम समयमें उदयको प्राप्त होता है तब उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है ऐसा यहाँ कथन करना चाहिये। विशेषार्थ—यहाँ मिथ्यात्व कर्मकी अपेक्षा उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy