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________________ wwwwwwwwww wrrorisma जयपपलासहिदे कसावपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ एवं गQसयवेदस्स। ६५. पुरिसबेद० उक्क० पदेसविहत्तिओ चदुसंज० णियमा अणुक० संखे०गुणहीणा। छण्णोकसाय० णियमा अणुक० असंखेजगुणहीणी। कोधसंज० उक्क. पदे०विहत्तिओ हेडिल्लाणं णियमा अवित्तिो । तिण्णं संज. णियमा अणुक० संखे.. गुणहीणा । पुरिस० णियमा अणुक० असंखे०गुणहीणा । माणसंज० उक्क० पदेसवित्तिओ हेष्टिनाणमविहतिओ । माया-लोभसंज० णियमा अणुक० संखे०गुणहीणा । कोधसंज० णियमा अणुक्क० असंखे०गुणहीणा। मायासंज० उक० पदेसविहत्तिओ लोभसंज. णियमा अणुक्क० संखे०गुणहीणी । माणसंजलण. णियमा अणुक्क० असंखेजगुणहीणा। लोभसंजलण० उक्क० पदे विहत्तिओ मायासंजलण णियमा अणुक० असंखेजगुणहीणा । चार संज्वलन और पुरुषवेदकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्यातगुणी हीन होती है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। विशेषार्थ—जो जीव बारह कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति करके यथाविधि भोगभूमिमें उत्पन्न होता है उसके पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण काल जाने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । उस समय मिथ्यात्व आदि बीस प्रकृतियोंकी प्रदेशविभक्ति अपने उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यातवें भागप्रमाण हीन हो जाती है, क्योंकि उस समय तक इनका इतना द्रव्य अधःस्थितिगलना आदिके द्वारा गल जाता है और जिनका अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण सम्भव है उनके द्रव्यका संक्रमण भी हो जाता है। फिर भी यहाँ पर अधास्थितिगलनाके द्वारा गलनेवाले द्रव्यकी मुख्यता है। नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति ऐशान कल्पमें होती है। उसकी मुख्यतासे भी इसी प्रकार सन्निकर्ष प्राप्त होता है, इसलिए उसे खीवेदकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ६५. पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके चार संज्वलनकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्यातगुणी हीन होती है। छह नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है। क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके पुरुषवेद और संज्वलन प्रकृतियोंके सिवा शेष प्रकृतियोंका नियमसे असत्त्व होता है। तीन संज्वलनोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्यातगुणी हीन होती है। पुरुषवेदकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है। मान संज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके संज्वलन प्रकृतियोंके सिवा पूर्वकी शेष सब प्रकृतियोंका नियमसे असत्त्व होता है। मायासंज्वलन और लोभसंज्वलककी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्यातगुणी हीन होती है। क्रोधसंज्वलनकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है। मायासंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके लोभसंज्वलनकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्यातगुणी हीन होती है। मानसंज्वलनकी नियमसे अनुत्कष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है। लोभसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मायासंज्वलनकी नियमसे अनुत्कष्ट प्रदेशविभक्ति १. मानतौ 'मसंखेजभागहोणा' इति पाठः । २. मा प्रतौ 'मसंखेजगुणहीणा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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