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________________ NONYMWWW गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं ३७७ ___ ६१६. तं पुण पुव्वं पुच्छाए विसईकयमुक्कस्सहिदिपत्तयं सगंतोभाविदा ताणुक्कस्सवियप्पमण्णदरस्स जीवस्स संबंधी होइ, विरोहाभावादो । गवरि खविदकम्मंसियं मोत्तूण उक्स्ससामित्तं वत्तव्वं, तत्थुक्कस्साभावादो। * अधाणिसेयहिदिपत्तयमुक्कस्सयं कस्स ? । ६६१७. एत्थ मिच्छत्तग्गहणमणुवट्टदे । सेसं सुगमं । * तस्स ताव संदरिसणा। $ ६१८. तस्स जहाणिसेयहिदिपत्तयस्स सामित्तप्परूवण ताव उवसंदरिसणा एन्थुवजोगी संबंधद्धपरूवणा कीरइ त्ति पइज्जासत्तमेदं । ___उदयादो जहएणयमाबाहामेत्तमोसक्कियूण जो समयपबद्धो तस्स पत्थि अधाणिसेयहिदिपत्तयं । ६६१६. जहाणिसेयसामित्तसमयादो जहण्णाबाहामेत्तं हेढदो ओसकियण बद्धो जो समयपबद्धो तस्स णिरुद्धहिदीए णत्थि जहाणिसेयहिदिपत्तयं पदेसग्गमिदि वुत्तं होइ। कुदो तस्स तत्थ णत्थितं ? ततो अणंतरोवरिमहिदिमादि काऊणुवरि ६६६६. जिसका विषय पहले बतला आये हैं और जिसमें अनन्त अनुत्कृष्ट विकल्प गर्भित हैं उस उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तका कोई भी जीव स्वामी हो सकता है, क्योंकि ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि क्षपितकांश जीवको छोड़कर अन्यके उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये, क्यों कि जो क्षपितकमांश जीव है उसके उत्कृष्ट विकल्प सम्भव नहीं है। विशेषार्थ-एक क्षपितकांश जीवको छोड़कर अन्य सब जीवोंके बन्धके समयमें अप्रस्थितिमें जितना द्रव्य प्राप्त हुआ था उदयके समय उत्कर्षणके सम्बन्धसे उतना द्रव्य पाया जा सकता है, इसलिये उत्कृष्ट अपस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी किसो भो जीवको बतलाया है। * उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तका स्वामी कौन है ? ६६१७. इस सूत्रमें 'मिथ्यात्व' पदको अनुवृत्ति होती है। शेष कथन सुगम है। * अब उसका स्पष्टीकरण करते हैं । ६६१८. अब उस यथानिषेकस्थितिप्राप्तके स्वामित्वका कथन करनेके लिए उपसंदर्शना अर्थात् प्रकृतमें उपयोगी सम्बन्धित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। इस प्रकार यह प्रतिज्ञा सूत्र है। * उदय समयसे जघन्य आबाधाप्रमाण स्थान नीचे जाकर जो समयप्रबद्ध बँधता है उसका विवक्षित स्थितिमें यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य नहीं है। ६६:९. यथानिषेकके स्वामित्वसमयसे जघन्य आबाधाप्रमाण स्थान नीचे (पीछे) जाकर जो समयप्रबद्ध बँधा है उसका विवक्षित स्थितिमें यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य नहीं है यह इस सत्रका तात्पर्य है। शंका-उसका वहाँ अस्तित्व क्यों नहीं है ? समाधान-क्योंकि प्रकृत स्वामित्वके समयसे जो अनन्तरवती उपरिम स्थिति है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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