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________________ ३७६ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ पदेस विहत्ती ५ जोगिणा बद्धेय समयपवद्धस्स गहणं कायव्वं, अण्णहा अग्गहिदीए उक्कस्सणिसेयाणुववत्तदो । तत्त्रियमुक्कस्सेण अग्गडिदिपत्तयं जत्तियं तमणंतर परूविदं । चरिमणिसेयउक्कस्सपदेसग्गमेयसमयपबद्धणिबद्धं तत्तियमेत्तमुक्कस्सग्गेण अग्गिहिदिपतयं होइ ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । ण चेदमेत्तियं जहाणिसेय सरूत्रेण लब्भर, ओकड्डिय कम्मविदितरे विणासियत्तादो । किं तु उकडणाए कम्महिदिचरिमसमए धरिदपदेसग्गमेत्तियं होइ ति गहेयव्वं । तम्हा एयसमयपवद्धणाणाणिसेए उक्कड्डिय धरिदपदेसग्गमेत्तियमुदयगयमुक्कस्सयमग्गद्विदिपत्तयं होइ ति सिद्धं । ६१५. एवं णिहालिदपमाणस्सेदस्स अणुक्कस्सवियप्पेहि सह सामित्तविहाणढमुत्तरमुत्तं भणइ - * तं पुण अणदरस्स होज्ज । पर्याप्त द्वारा उत्कृष्ट योगसे बाँधे गये एक समयप्रबद्धका ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा स्थिति में उत्कृष्ट निषेक नहीं प्राप्त हो सकते हैं । उत्कृष्टरूपसे अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्य उतना ही होता है जितनेका अनन्तर कथन कर आये हैं । एक समयप्रबद्ध के अन्तिम निषेकमें जितना उत्कृष्ट द्रव्य होता है उतना उत्कृष्टरूपसे अग्रस्थितिप्राप्त होता है यह यहाँ इस सूचका समुदायरूप अर्थ है । जिस रूपसे इसका अग्रस्थिति में निक्षेप होता है उसी रूपसे वह उतना पाया जाता है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्यों कि अपकर्षण होकर कर्मस्थिति के भीतर ही उसका विनाश देखा जाता है। किन्तु उत्कर्षण के द्वारा कर्मस्थितिके अन्तिम समय में उतना द्रव्य पाया जा सकता हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये, इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि एक समयप्रबद्धके नानानिषेकोंका उत्कर्षण होकर उदद्यगत उतना द्रव्य हो जाता है जो अग्रस्थितिप्राप्त उत्कृष्ट द्रव्य के बराबर होता है । विशेषार्थ — यहाँ मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त द्रव्यके उत्कृष्ट स्वामित्वका विचार करते समय यह बतलाया गया है कि उदयके समय अप्रस्थिति में कमसे कम कितना और अधिक से अधिक कितना द्रव्य प्राप्त होता है । स्थितिकाण्डकघात आदिके द्वारा अग्रस्थितिका सर्वथा अभाव हो जाय यह दूसरी बात है पर यदि उसका अभाव नहीं होता तो यह सम्भव है कि एक परमाणुको छोड़कर उसके और सब द्रव्यका अपकर्षण होकर विनाश हो जाय । यह भी सम्भव हैं कि दो परमाणुओं के सिवा और सब द्रव्यका अपकर्षण होकर विनाश हो जाय । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक परमाणुको बढ़ाते हुए अप्रस्थिति में एक समयप्रबद्धका जितना द्रव्य प्राप्त होता है उतना प्राप्त होने तक यह द्रव्य पाया जा सकता है । पर सबका सब बन्धके समय अप्रस्थितिमें जैसा प्राप्त हुआ था वैसा ही अपने उदय कालके प्राप्त होनेतक नहीं बना रहता है, किन्तु इसमें से बहुतसे द्रव्यका अपकर्षण आदि भी हो जाता है, इसलिये यह घट तो जाता है तो भी उन्हींका पुनः या अन्य निषेकोंके द्रव्यका उत्कर्षण करके वह उतना अवश्य किया जा सकता है यह इसका भाव है । ६१५. इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त के प्रमाणका विचार करके अब अनुत्कृष्ट विकल्पों के साथ इसके स्वामित्वका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * उस उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी कोई भी जीव होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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