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________________ २६८ अयधवलासहिदे कसायपाहुडे पदेसविहत्ती ५ ४६२. संतकम्ममस्सियूण जेतिया अणंतरहेडिमाए अवत्थुवियप्पा तदो रूवुत्तरा एत्थ ते वत्तव्या, तत्तो रूवुत्तरमदाणं चडिय एदिस्से अवहाणादो। एदं रूवुत्तरवयणमंतदीवयं । तेण हेडिमासेसहिदीणमवत्थुवियप्पा अणंतराणंतरादो रूवुत्तरा ति घेत्तव्यं । एदं च संतकम्ममस्सियूण परूविदं, ण णवकबंधमस्सिय, तत्थावलियमेत्ताणमवत्थुवियप्पाणमवहिदसरूवेणावहाणादो । एवमवत्थुवियप्पे परूविय वत्थुवियप्पाणं झीणाझीणहिदियभेदभिण्णाणं परूषणमुत्तरो पबंधो 8 जद्देही एसा हिदी तत्तियं हिदिसंतकम्मं कम्महिदीए सेसयं जस्स पदेसग्गस्स तं पयेसग्गमेदिस्से हिदीए होज तं पुण उक्कड्डणादो झीणहिदियं । ६४६३. कुदो ? उवरि सत्तिहिदीए एयस्स वि समयस्स अभावादो । 9 एदादो हिदीदो समयुत्तरहिदिसंतकम्म कम्महिदीए सेसयं जस्स पदेसग्गस्स तमुक्कड्डणादो झीणहिदियं । ४६४. सुगमं । एवं गंतूण आबाहामेत्तहिदिसंतकम्म कम्मदिहीए सेसं जस्स पदेसग्गल्स एदीए हिदीए दीसइ तं पि उकड्डणादो झीणहिदियं । ६४६२. सत्कर्मकी अपेक्षा जितने अनन्तरवर्ती पिछली स्थितिके अवस्तुविकल्प हैं उनसे एक अधिक यहाँ वे विकल्प हैं, क्योंकि पूर्वस्थितिसे एक स्थान आगे जाकर यह स्थिति अवस्थित है। इस सूत्र में जो 'रूवुत्तरा' वचन आया है सो यह अन्तदीपक है। इससे यह मालूम होता है कि पीछे सर्वत्र पूर्व पूर्व अनन्तरवर्ती स्थितिसे आगे आगेकी स्थितिके अवस्तु विकल्प एक एक अधिक होते हैं। यह सब सत्कर्मकी अपेक्षासे कहा है, नवकबन्धकी अपेक्षासे नहीं, क्योंकि नवकबन्धकी अपेक्षासे सर्वत्र एक श्रावलिप्रमाण ही अवस्तुविकल्प पाये जाते हैं। इस प्रकार अवस्तुविकल्पोंका कथन करके झीनाझीनस्थितियोंकी अपेक्षासे अनेक प्रकारके वस्तुविकल्पोंका कथन करनेके लिये आगेकी रचना है -- * जितनी यह स्थिति है उतना स्थितिसत्कर्म जिन कर्मपरमाणुओंका शेष है व कर्मपरमाणु इस स्थितिमें हैं। किन्तु वे उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले हैं । 5 : ६३. क्योंकि ऊपर एक समयमात्र भी शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती है। * इस स्थितिसे जिन कर्मपरमाणुओंका कर्मस्थितिमें एक समय अधिक स्थितिसत्कर्म शेष है वे कर्मपरमाणु भी उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले हैं । $ ४६४. यह सूत्र सरल है। * इसी प्रकार आगे जाकर कर्मस्थितिमें जिन कर्मपरमाणुओंका आवाधाप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष है वे कर्मपरमाणु भी इस स्थितिमें पाये जाते हैं। परन्तु वे भी उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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