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________________ गा० २२) पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा २६६ ४६५. एत्य तं पि सद्दो आवित्तीए दोवारमहिसंबंधेयव्यो । तं पि पदेसग्गमेदिस्से हिदीए दीसइ । दिस्समाणं पि तमुक्कड्डणादो झीणहिदियमिदि। आषाहासमयुत्तरमेत्तं हिदिसंतकम्मं कम्महिदीए सेसं जस्स पदेसग्गस्स तं पि उकडणादो झीणहिदियं ।। ४६६. कम्महिदीए अभंतरे जस्स पदेसग्गरस समयुत्तराबाहामेत्तहिदिसंतकम्ममवसेसं तं पि एदिस्से हिदीए द्विदमुक्कड्डणादो झीणहिदियं । कुदो ? अधिच्छावणाए अज्ज वि समयूणत्तदंसणादो। आवाधादुसमयुत्तरमेत्तहिदिसंतकम्मं कम्महिदीए सेसं जस्स पदेसग्गरस एदिस्से हिंदीए दिस्सह तं पदेसग्गमुक्कड्डणादो झीणहिदिर्य । ६.४६७. कुदो अधिच्छावणाए आवलियमेत्तीए संपुण्णाए संतीए झीगहिदियत्तमेदस्स ? ण, णिक्खेवाभावेण तहाभावाविरोहादो। ६४६५. इस सूत्रमें 'तं पि' शब्दकी आवृत्ति करके दो बार सम्बन्ध कर लेना चाहिये। यथा-वे कर्मपरमाण भी इस स्थितिमें पाये जाते हैं। पाये जाकर भी वे उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं। * तथा जिन कर्मपरमाणुओंकी कर्मस्थितिमें एक समय अधिक आवाधाप्रमाण स्थिति शेष है वे कर्मपरमाणु भी उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं । ४६६. कर्मस्थितिके भीतर जिन कर्मपरमाणोंका एक समय अधिक आबाधाप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष है वे कर्मपरमाणु भी यद्यपि इस स्थितिमें हैं तो भी वे उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं, क्योंकि अभी भी अतिस्थापनामें एक समय कम देखा जाता है। * कर्मस्थितिके भीतर जिन कर्मपरमाणुओंका दो समय अधिक आबाधाप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष है वे कमेपरमाणु भी इस स्थितिमें पाये जाते हैं। परन्तु वे उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं। ६४६७. शंका--जब कि अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण परी है तब इन कर्मपरमाणुओंमें झीनस्थितिपना कैसे है ? समाधान-नहीं, क्योंकि निक्षेपका अभाव होनेसे इन कर्मपरमाणुओंमें झीनस्थितिपनेके होने में कोई विरोध नहीं है । विशेषार्थ-इन पूर्वोक्त सूत्रोंमें यह बतलाया है कि तीन समय अधिक प्रावलिसे न्यून आबाधाप्रमाण स्थितिमें झीनस्थिति विकल्प कहाँसे लेकर कहाँ तक होते हैं। यह तो पहले ही बतलाया जा चुका है कि एक समय कम आवलिसे न्यून आबाधाप्रमाण स्थितिसे लेकर आगे सर्वत्र प्रतिस्थापना एक आवलि प्राप्त होती है। विवक्षित स्थिति भी उक्त स्थितिसे दो समय आगे जाकर प्राप्त है, इसलिये इसमें भी अतिस्थापनाका प्रमाण एक आवलि प्राप्त होता है। आशय यह है कि इस स्थितिमें जो कर्मपरमाणु स्थित हैं उनमेंसे जिनकी स्थिति उसी विवक्षित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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