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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अट्टपदेण दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । तत्थ ओघेण अठ्ठावीसं पयडीणं उक्कस्सपदेसस्स सिया सब्बे जीवा अविहत्तिया १, सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च २, सिया अविहतिया विहतिया च ३। अणुक्कस्सपदेसस्स सिया सव्वे जीवा वित्तिया १, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च २, सिया विहतिया च अविहत्तिया च ३ । एवं सव्वणेरइय-सव्यतिरिक्व-मणुसतिय-सव्वदेवे ति । मणुस अपज्ज. अहावीसं पयडीणं उक्कस्सपदेसविहत्तियाणं अविहत्तिएहि सह अह भंगा। अणुक्कस्सपदेसविहत्तियाणं पि अविहत्तिएहि सह अह भंगा वत्तव्वा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति। है। इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है—ोघ और आदेश । ओघसे कदाचित् सब जीव अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश-अविभक्तिवाले हैं १। कदाचित् अविभक्तिबाले बहुत जीव हैं और विभक्तिवाला एक जीव है २। कदाचित् अविभक्तिवाले बहुत जीव हैं और विभक्तिवाले बहुत जीव हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव विभक्तिवाले हैं १ । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले हैं और एक जीव अविभक्तिवाला है २ । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले हैं और बहुत जीव अविभक्तिवाले हैं ३। इसी प्रकार सब नारकी, सब तियंञ्च, मनुष्यत्रिक और सब देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तक जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंके अविभक्तिवाले जीवोंके साथ आठ भङ्ग होते हैं। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंके भी अविभक्तिवाले जीवोंके साथ आठ भङ्ग करने चाहिए। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए। विशेषार्थ-यहां अट्ठाईस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले और अविभक्तिवाले तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीवोंके भङ्ग कहकर फिर चार गतियोंमें वे बतलाये गये हैं। उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति उत्कृष्ट योगसे होती है। वह सदा सम्भव नहीं है, इसलिए कदाचित् एक भी जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला नहीं होता, कदाचित् एक जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है और कदाचित् नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं, इसलिए उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा तीन भङ्ग होते हैं। भङ्ग मूलमें ही कहे हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा विचार करने पर भी तीन भङ्ग ही प्राप्त होते हैं, क्योंकि कदाचित् सब जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके धारक होते हैं, कदाचित् शेष सब जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके धारक होते हैं और एक जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका धारक नहीं होता और कदाचित् नाना जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके धारक होते हैं और नाना जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके धारक नहीं होते, इसलिए इस अपेक्षासे भी तीन भङ्ग बन जाते हैं। लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंको छोड़कर गति मागंणाके अन्य सब भेदोंमें यह ओघ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनमें अओघके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र मनुष्य अपर्याप्तक यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों प्रदेशविभक्तिवालोंके अपने-अपने अविभक्तिवालोंके साथ एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा आठ-आठ भङ्ग बन जानेसे उनका संकेत अलगसे किया है। भङ्गोंकी यह पद्धति अनाहारक मार्गणातक अपनी-अपनी विशेषताके साथ घटित हो जाती है, इसलिए अनाहारक मार्गणातक उक्त प्ररूपणाके समान जाननेकी सूचना की है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट भङ्गविचय समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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