SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ जयधवलासहिदे फसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * अणंताणुबंधीणमुक्कस्सयमोकड्डणादितिण्हं पि भीणडिदियं कस्स ? ४६६. सुगममेदं पुच्छामुत्तं ।। ॐ गुणिदकम्मंसिओ संजमासंजम-संजमगुणसेढीहि अविण हाहि अणंताणुबंधी विसंजोएदुमाढत्तो, तेसिमपच्छिमहिदिखंडयं संछुभमाणयं संछुद्ध तस्स उक्कस्सयमोकडणादितिण्हं पि झीणहिदियं । ५००. जो गुणिदकम्मसिओ सबलहुमणंताणुबंधिकसाए विसंजोएदुमाढत्तो। किंभूदो सो संजमासंजम-संजमगुणसेढीए अविणहसरूवाहि उवलक्खिओ तेण जाधे तेसिमपच्छिमहिदिखंडयं सेसकसायाणमुवरि संछुब्भमाणायं संछुद्धं ताधे तस्स उक्कस्सयमोकड्डणादीणं तिण्हं पि संबंधि झीणहिदियं होदि ति सुत्तत्थसंबंधो । कुदो एदस्स उकस्सत्तं ? ण; तिण्हें पि सग-सगुक्कस्सपरिणामेहि कयगुणसेढिगोवुच्छाणं यहाँ एक यह तर्क किया जा सकता है कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें मरण नहीं होता और उपशमसम्यक्त्व गुणश्रेणि आदि तीनके सिवा शेषका निषेध मरणका आलम्बन लेकर किया है संक्लेशका आलम्बन लेकर नहीं, अतः सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणिके माननेमें कोई आपत्ति नहीं है । पर यह तर्क भी ठीक नहीं ज्ञात होता, क्योंकि संक्लेशका और मरणका परस्पर सम्बन्ध है। संक्लेशके होने पर मरण आवश्यक है यह बात नहीं पर मरणके लिये संक्लेश आवश्यक है। इसलिये यहाँ तीनके सिवा शेष गुणश्रेणियाँ संक्लेशमात्रमें सम्भव नहीं यह तात्पर्य निकलता है। यद्यपि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनावाला जीव जाता है पर वह तभी जाता है जब गुणश्रेणिका काल समाप्त हो लेता है। अतः संयमासंयम और संयम इन दो गुणश्रेणिशीर्षों के उदयकी अपेक्षा ही सम्यग्मिथ्यात्वके प्रथम समयमें उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु कहने चाहिये यह तात्पर्य निकलता है। * अनन्तानुबन्धीके अपकर्षण आदि तीनोंके झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ? ६४६६. यह पृच्छासूत्र सुगम है। * जिस गुणितकर्माशवाले जीवने संयमासंयम और संयमकी गुणश्रेणियोंका नाश किये बिना अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका आरम्भ किया और जिसके अनन्तानुबन्धियोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकका क्रमसे नाश हो गया वह अपकर्षण आदि तीनोंके झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है। ५००. गुणितकाशवाले जिस जीवने अतिशीघ्र अनन्तानुबन्धी कषायकी विसंयोजना का प्रारम्भ किया। विसंयोजनाका प्रारम्भ करनेवाला जो नाशको नहीं प्राप्त हुई संयमासंयम और संयमसम्बन्धी गुणश्रेणियोंसे युक्त है। उसने जब उन अनन्तानुबन्धी कषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकको शेष कषायोंमें क्रमसे निक्षिप्त कर दिया तब उसके अपकर्षणादि तीनों सम्बन्धी उत्कृष्ट झीनस्थिति होती है यह इस सूत्रका अभिप्राय है । शंका-इसीके उत्कृष्टपना कैसे होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy