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________________ १२३ गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा 8 जहा णिरयगईए तहा सव्वासु गईसु । ६२६५. एदस्स अप्पणामुत्तस्स आलावसामण्णमवेक्खिय पयट्टस्स सामित्ततदणुसारिगुणगारविसेसणिरवेक्खस्स अत्थपरूदणा अवहारिय सामित्तविसेसाणं सुगमा। एदेण गइसामण्णप्पणासुत्रेण मगुसगईए वि णिरओघभंगे 'अइयप्पसत्ते तव्वुदासदुवारेण तत्थ अववादपरूवणहमुत सुत्तं भणदि ॐ णवरि मणुसगदीए ओघं । ६२६६. एत्थ णवरि सद्दो पुयिल्लप्पणादो एदस्स विसेसमूचओ। को सो विसेसो ? मणुसगईए ओघभिदि मणुसगइओघालावमणाहियं लहदि ति वुत्तं होइ । तदो ओघालावो अणणाहिओ एत्थ काययो, मणुसगइसामण्णप्पणाए तदविरोहादो। विसेसप्पणाए पुण अत्थि भेदो, मणुसपज्जचएसु सुवदो बहिब्भूदइत्थिवेदोदएम णसयवेदस्सुवरि ओघम्मि विसेसाहियभावेण पदिदइत्थिवेदस्स चरिमफालिमाहप्पेण असंखेज्जगुणत्तु वलंभादो । मणुसिणीसु वि माणसंजलस्सुवरि मायासंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । इथिवेदे जहण्णपदेससंतकम्मं असंखेज्जगुणं; गुणसेढीए पाहणियादो। गqसयवेदे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं, वेछावहीण * जिस प्रकार नरकगतिमें अल्पबहुत्व है उसी प्रकार सब मार्गणाओंमें जानना चाहिए। ६२६५. स्वामित्व और उसके अनुसार गुणकारविशेषकी अपेक्षा किये बिना आलापसामान्यकी अपेक्षा प्रवृत्त हुए इस अर्पणा सूत्रकी अर्थप्ररूपणा सुगम है। इस गतिमार्गणासबन्धी अर्पणासूत्रके श्राश्रयसे मनुष्यगतिमें भी सामन्य नारकियोंके समान भङ्गका अतिप्रसङ्ग प्राप्त होने पर उसके निराकरण द्वारा वहाँ पर अपवादका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिमें ओघके समान भा है। ६ २६६. यहाँ पर 'णवरि' शब्द पहलेके सूत्रसे इसमें विशेषका सूचक है। शंका-वह विशेष क्या है ? समाधान-'मनुष्यगतिमें ओघके समान है' ऐसा कहनेसे मनुष्यगतिमें ओघ आलाप न्यूनाधिकतासे रहित होकर प्राप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, इसलिए न्यूनता और अधिकतासे रहित ओघ आलाप यहाँ करना चाहिए, क्योंकि मनुष्यगति सामान्यकी विवक्षा होने पर उसमें ओघ आलापके घटित होनेमें विरोध नहीं आता। विशेषकी विवक्षा होनेपर तो भेद है ही, क्योंकि स्त्रीवेदके उदयसे रहित मनुष्यपर्याप्तकोंमें नपुंसकवेदके ऊपर अोधमें विशेष अधिकरूपसे प्राप्त हुआ स्त्रीवेद अन्तिम फालिके माहात्म्यसे असंख्यातगुणा उपलब्ध होता है। मनुष्यिनियोंमें भी मान संज्वलनके ऊपर माया संज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। उससे स्त्रीवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है, क्योंकि यहाँ पर गुणनेणिकी प्रधानता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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