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________________ १२४ जयधवलाहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ मगलणादो अधापवत्तचरिमसमए देसूणपुवकोडिणिज्जरादवपरिहीणसगसयलदव्वेण सह जहण्णसामित्तविधाणादो । हस्से जहण्णपदेससंतकम्म संखेजगुणं, दोण्हं । पि देसूणपुचकोडिणिज्जराए सरिसीए संतीए बंधगद्धावसेण संखेज्जगुणत्तवलंभादो त्ति । एसो च विसेसो दव्वहियणयमस्सियूण सुत्त यारेण ण विवक्खिओ। पज्जवहियणयावलंबणे पुण वक्खाणाइरिएहिं वक्खाणेयव्वो, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति न्यायात् । सुगममन्यत् । संपहि सेसमग्गणाणं देसामासियभावेण इंदियमग्गणावयबभूदएइंदिएसु जहण्णप्पाबहुअपरूवणहमुत्तरमुत्तपबंधमाह * एइंदिएसु सव्वत्थोवं सम्मत्तं जहणणपदे ससतकम्मं । ६ २६७. कुदो ? खविदकम्मंसियस्स भमिदवेछावहिसागरोवमस्स दीहुव्वेल्लणकालदुचरिमसमए वट्टमाणस्स दुसमयकालहिदिएयणिसेयहिदमुटु त्थोवयरजहण्णदव्वग्गहणादो * सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदे ससतकम्ममसंखेजगुणं । २६८. एत्थ कारणमोघसिद्धं । गुणगारो च सुगमो । * अणंताणुबंधिमाणे जहएणपदेससंतकम्ममसंखेज गणं । है। उससे नपुंसकवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म अन्तिम फालिके कारण असंख्यातगुणा है । उससे पुरुषवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है, क्योंकि दो छयासठ सागर प्रमाण निषेकोंके नहीं गलनेसे अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण निर्जराको प्राप्त हुए द्रव्यसे हीन अपने समस्त द्रव्यके साथ जघन्य स्वामित्वका विधान किया गया है । उससे हास्यमें जघन्य प्तदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है, क्योंकि दोनों ही कर्मोंकी कुछ कम एक पूर्वकोटिकाल तक होनेवाली निर्जराके समान होते हुए भी बन्धक कालके वशसे पुरुषवेदके जघन्य प्रदेशसत्कमसे हास्यका जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा उपलब्ध होता है। इस प्रकारके इस विशेषकी द्रव्याथिकनयका आश्रय लेकर सूत्रकारने विवक्षा नहीं की है। परन्तु पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन लेकर व्याख्यानाचार्यको व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि व्याख्यानसे विशेष प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्यायवचन है। शेष कथन सुगम है । अब शेष मार्गणाओंके देशामर्षकरूपसे इन्द्रियमार्गणाके अवान्तर भेद एकेन्द्रियोंमें जघन्य अल्पबहुत्वके कथन करनेके लिए आगेके सूत्रकलापको कहते हैं * एकन्द्रियोंमें सम्यक्त्वमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म सबसे स्तोक है। ६२६७. क्योंकि जो क्षपितकांशिक जीव दो छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण कर चुका है उसके दीर्घ उद्वेलनकालके द्विचरम समयमें विद्यमान रहते हुए दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकमें स्थित अत्यन्त स्तोकतर जघन्य द्रव्यका ग्रहण किया है । * उससे सम्यग्मिथ्यात्वमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है । ६२६८. यहां पर कारण ओघके समान सिद्ध है और गुणकार भी सुगम है। * उससे अनन्तानुबन्धी मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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