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________________ गा०२२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पा बहुअपरूवणा ९ २६६ को गुणगारो ! वेछावद्विसागरोवमदीहुव्वेन्लणकालणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासी गुणसंकमोड्ड कड्डणभागहारच रिमफालीहि गुणिय अधापवत्तभागहारेणोवट्टिदो । कुदो १ खबिदकम्मं सियस्स अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्पियस्स तसे सुप्पज्जिय विसंजोइ अनंताणुबंधिचउकस्स पुणो अंतोमुहुत्त संजुत्तस्स फलाभावेण अभमादिदवेद्यावद्विसागरोवमस्स एईदिए मुप्पण्णपढमसमए जहण्णसामित्तपरूवणादो । कुदो वेळावद्विसागरोवमपरिब्भमणे फलाभावो १ ण, एइंदिएसपत्तिअण्णहाणुववत्तीए । पुणो विमिच्छतं गच्छमाणेण अधापवत्तेण पडिविज्जमाणdaraहिसागरोवमन्तरसं चिददिवङ्गुणहाणिगुणिदपंचिंदिय समयपबद्धमेत्त से सकसाय-दव्वस्स पुव्वपरूविदसामियजहण्णदव्वादो जोअगुणगारमाहप्पेण असंखेज्जगुणतेण फलावलं भादो । निरयगईए बि अनंताणुबंधिचक्कसामियस्स अपरिब्भमिदdara सागरोवमस्स एइंदियजहण्णसंतकम्मेणेव पवेसणे एदं चैव कारणं वत्तन्वं, तत्थेव इत्थवेदजहण्णसंतकम्मादो बंधगद्धावसेण णवुंसयवेदजहण्णसंतकम्मस्स संखेज्ज - गुण एवं तिपलिदो मछावह्निसागरोवमाणमपरिब्भमणं कारणत्तणं परूवेयव्वं । $ २६६. गुणकार क्या है ? दो छयासठ सागरोपम दीर्घं उद्वेलन कालके भीतर प्राप्त नाना गुहानि शलाकाकी अन्योन्याभ्यस्त राशिको गुणसंक्रमभागहार, अपकर्षण- उत्कर्षरणभागहार और अन्तिम फालिसे गुणित करके अधःप्रवृत्तभाहारका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना गुणकार है, क्योंकि जो क्षपितकर्माशिक जीव अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्म करके नसों में उत्पन्न हुआ । पुनः अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके और अन्तर्मुहूर्त में उससे संयुक्त होकर कोई लाभ न होनेसे दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण किये बिना एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ है उसके वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समय में जघन्य स्वामित्वका कथन किया है । शंका- दो छयासठ सागर कालके भीतर परिभ्रमण करना निष्फल क्यों है ? १२५ समाधान नहीं, क्योंकि अन्यथा उसकी एकेन्द्रियोंमें उत्पत्ति बन नहीं सकती है । फिर भी मिथ्यात्व में जाकर अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा संक्रमणको प्राप्त हुए और दो छयासठ सागर कालके भीतर सञ्चित हुए डेढ़ गुणहानिगुणित पञ्चोन्द्रियके समयप्रबद्धमात्र शेष कषायों के द्रव्यके पहले कहे गये स्वामित्वविषयक जघन्य द्रव्यसे योग गुणकारके माहात्म्य वश असंख्यात - गुणे होनेके कारण कोई फल नहीं उपलब्ध होता । नरकगति में भी अनन्तानुबन्धीचतुष्कका स्वामित्व कहते समय उसे दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण न करा कर एकेन्द्रियोंमें जघन्य सत्कर्मरूपसे प्रवेश कराने में यही कारण कहना चाहिए। तथा वहीं स्त्रीवेदके जघन्य सत्कर्मसे बन्धक काल वश नपुसंकवेदके जघन्य सत्कर्मके संख्यातगुणे होने पर इसी प्रकार तीन पल्य और दो छ्यासठ सागर कालके भीतर परिभ्रमण नहीं करना कारणरूपसे कहना चाहिए । १ ता०प्रतौ - मपरिग्भमणकारणत्तेय' इति पाठ: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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