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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * सम्मत्त उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । १३६. सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तस्स विसेसाहियत्तं ण घडदे, गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण मणुस्सेसुववज्जिय अह वस्साणि गमिय पुणो दसणमोहं खतेण मिच्छत्तदव्वे सम्मामिच्छत्तस्सुवरि पक्खित्ते सम्मामिच्छत्तमुक्कस्सं होदि । पुणो तत्तो अरि अंतोमुहुत्तं गुणसेढिणिज्जराए सम्मामिच्छत्तदव्वस्स गिजरणं करिय पुणो सम्मामिच्छत्ते सगुक्कस्सदव्वादो असंखे०भागहीणे सम्मत्तस्सुवरि पक्खित्ते सम्मत्तदबस्सुक्कस्सत्तुवलंभादो ति ? ण एस दोसो, सम्मामिच्छत्ते उक्कस्से जदि संते पच्छा गुणसेढिणिज्जराए णिजरिदसम्मामिच्छत्तदव्वादो पुव्वं सम्मत्तसरूवेण द्विददव्वस्स असंखे गुणत्तुवलंभादो । ण च असंखेज्जगुणत्तमसिद्धं, ओकड कड्डणभागहारादो गुणसंकमभागहारस्स असंखे०गुणहीणतणेण तस्सिद्धिदसणादो। * मिच्छत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।। ६ १३७. भवहिदीए चरिमसमयहिदसत्तमपुढविणेरइयमिच्छत्तकस्सदव्वं पेक्खिदूण सम्मत्तुक्कस्सदव्वम्मि गुणसेढिणिज्जराए णिज्जिण्णपलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तसमयपबदाणमूणत्तुवलंभादो । * हस्से उक्कस्सपदेससंतकम्ममणंतगुणं । ® उससे सम्यक्त्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ १३६. शंका--सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यसे सम्यक्त्वका द्रव्य विशेष अधिक घटित नहीं होता, क्योंकि गुणितकर्माशिक लक्षणसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न होकर और आठ वर्षे बिताकर पुनः दर्शनमोहका क्षपण करनेवाले उसके द्वारा मिथ्यात्वके द्रव्यके सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त करने पर सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य उत्कृष्ट होता है। पुनः उसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यकी निर्जरा करके पुनः अपने उत्कृष्ट द्रव्यके असंख्यातवें भागहीन सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यके सम्यक्त्वमें प्रक्षिप्त करने पर सम्यक्त्वका उत्कृष्ट द्रव्य उपलब्ध होता है ? समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यद्यपि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट होनेके बाद गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य निर्माण होता है तो भी उस द्रव्यके निजीणं होनेके पूर्व ही उससे सम्यक्त्वरूपसे स्थित हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा पाया जाता है। और उसका असंख्यातगुणा होना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे गुणसंक्रमभागहार असंख्यातगुणा हीन होता है, इससे उसके निजीर्ण होनेवाले द्रव्यसे असंख्यातगुणे होनेकी सिद्धि हो जाती है। * उससे मिथ्यात्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६१३७. क्योंकि भवस्थितिके अन्तिम समयमें स्थित हुए सातवीं पृथिवीके नारकीके मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यको देखते हुए सम्यक्त्वका उत्कृष्ट द्रव्य गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा निर्जीणं होनेसे पल्यके असंख्यातवें भागमें जितने समय हों उतने समयप्रबद्धप्रमाण कम पाया जाता है। * उससे हास्यमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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