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________________ ३६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * अहवा इत्थिवेद-पव॑सयवेदाणं जहएणयाणि प्रोकडणादीणि तिगिण वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि थोवाणि । ५६२. जहाकमेण वेछावहिसागरोवम-तिपलिदोवमभहियवेछावहिसागरोवमाणि भमाडिय सामित्तविहाणादो । * उदयादो जहएणयं झीपहिदियमसंखेजगुणं । १५६३. पुव्वुत्तकालमगालिय सामित्तविहाणादो । तं पि कुदो ? स्थिवुक्कसकमबहुत्तभयादो। * अरइ-सोगाणं जहएणयाणि तिषिण वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि थोवाणि । ६५६४. उवसंतकसायचरविदियसमयदेवस्स उदयावलियपविठ्ठएयणिसेयस्स सव्वपयत्तेण जहण्णीकयस्स गहणादो । * जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं विसेसाहियं । इस प्रकार इन सब प्रकृतियोंका अभिप्रायान्तरकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन करके अब स्वामित्वके अनुसार स्तिबुकसंक्रमणको प्रधान करके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * अथवा स्त्रीवेद और नपुसकवेदके अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्य परस्पर तुल्य होते हुए भी थोड़े हैं। १५६२. क्योंकि क्रमसे स्त्रीवेदकी अपेक्षा दो छयासठ सागर काल तक और नपुंसकवेदकी अपेक्षा तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कराके इन दोनों वेदोंके स्वामित्वका विधान किया गया है। * उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य उससे असंख्यातगुणा है। ६५६३. क्योंकि पूर्वोक्त कालको न गलाकर स्वामित्वका विधान किया गया है। शंका-ऐसा क्यों किया गया। समाधान-स्तिवुकसंक्रमणके बहुत द्रव्यके प्राप्त होनेके भयसे ऐसा किया गया है। विशेषार्थ-स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य क्रमसे दो छयासठ सागर पूर्व और तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर पूर्व प्राप्त होता है और अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य उक्त काल बाद प्राप्त होता है, इसलिये अपकर्षण आदिकी अपेक्षा प्राप्त हुए झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यसे उदयकी अपेक्षा प्राप्त हुआ झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य असंख्यातगुणा बतलाया है। * अरति और शोकके अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्य परस्पर तुल्य होते हुए भी थोड़े हैं। $ ५६४. क्योंकि जो उपशान्तकषायचर देव दूसरे समयमें स्थित है उसके उदद्यावलिमें प्रविष्ट हुए और सब प्रयत्नसे जघन्य किये गये एक निषेकका यहाँ पर ग्रहण किया गया है। * उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य उससे विशेष अधिक है । Jain Education International i For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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