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________________ १३७ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे कालो एगस०, उक० अंतोमु० । अप्प. जह• एगसमओ, उक्क० वेछावहिसागरो. सादिरेयाणि । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं भुज०-अप० जह० एगसमो, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एदेसि छण्णोक० अवहि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अन्तर्मुहूर्त है उपशमश्रेणिकी अपेक्षा । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है। हास्य, रति, अरति और शोककी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इन छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगारविभक्ति मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। मिथ्यात्वमें भुजगारका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनके इस पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। इनकी अल्पतरविभक्ति मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनोंके होती है, इसलिए इनके इस पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक दो छयासठ सागर कहा है। यहाँ प्रारम्भमें उपशमसम्यक्त्वके साथ रखकर और मध्यमें सम्यग्मिथ्यात्वमें ले जाकर वेदकसम्यक्त्वके साथ उकृष्ट काल तक रखकर मिथ्यात्वमें भी यथासम्भव काल तक अल्पतरविभक्ति करानेसे यह काल प्राप्त होता है। इनकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है यह स्पष्ट ही है। मात्र सासादनगुणस्थानमें मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति उसके पूरे उत्कृष्ट काल तक बनी रहे यह सम्भव है, इसलिए यहाँ मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल छह आवलिप्रमाण कहा है। अवक्तव्यविभक्ति बन्ध या सत्त्वके प्रारम्भ होनेके प्रथम समयमें होती है, इसलिए अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्ति उपशमसम्यक्त्वके समय होती है और इसका काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहाँ इन दो प्रकृतियों की भुजगारविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इनकी अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। इनकी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय अनन्तानुबन्धीके समान तथा अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलि मिथ्यात्व के समान घटित कर लेना चाहिए। बारह कषाय आदिकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनोंके होती है पर इनका उत्कृष्ट काल मिथ्यादृष्टिके ही सम्भव है, क्योंकि वहीं पर इनके ये दोनों पद पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ह, इसालए इनके इन दोनों पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है यह स्पष्ट ही है। तथा उपशमश्रेणिमें अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका अवस्थितपद् सम्भव है, इसलिए इस अपेक्षासे इनके अवस्थितपदका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भुजगारपद तो अधिकसे अधिक अन्तमुहूत काल तक ही होता है पर इनका अल्पतरपद साधिक दो छथासठ सागर काल तक भी सम्भव है, इसलिए इनके इन दोनों पदोंका जघन्य काल एक समय तक भुजगारका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और अल्पतरका उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण कहा है। हास्यादिका बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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