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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ हाणंतरमणंतगुणं । दिवडगुणहाणिहाणंतरं विसेसाहियं । णिसेयभागहारो विसेसो । अण्णोण्णब्भत्थरासी अणंतगुणो ति । एवमप्पाबहुए समत्ते झीणमझीणं ति पदं समत्तं होदि ।
(हिदियं ति चूलिया भदं सम्मइंसणणाणचरित्ताणममलसाराणं । जिणवरवयणमहोवहिगम्भसमन्भूयरयणाणं ॥ सुहुमयतिहुवणसिहरहिदियंतियसिद्धवं दियं वीरं ।
इणमो पणमिय सिरसा वोच्छं ठिदियं ति अहियारं ॥१॥) * ठिदियं ति जं पदं तस्स विहासा ।
५६७. एत्तो उपरि ठिदियं ति जं पदं मूलगाहाए चरिमावयवभूदं वा सद्देण सूचिदासेसविसेसपरूवणं तस्स विहासा अहिकीरदि ति सुत्तत्थसंबंधो । तत्थ कि ठिदियं णाम ? द्विदीओ गच्छइ ति हिदियं पदेसग्गं हिदिपत्तयमिदि उत्तं होदि । इससे द्वयर्धगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक है। इससे निषेकभागहार विशेष अधिक है। इससे अन्योन्याभ्यस्तराशि अनन्तगुणी है।
इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त हो जानेपर गाथामें आये हुए 'झीणमझीणं' इस पदकी व्याख्या समाप्त होती है।
स्थितिग चूलिका __ जैसे महोदधिके गर्भसे उत्तमोत्तम रत्न निकलते हैं उसी प्रकार जो जिनेन्द्रदेवके वचनरूपी महोदधिसे निकले हैं और जो संसारके सब निर्मल पदार्थोंमें सारभूत हैं ऐसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप तीनों रत्नोंकी सदा जय हो ।। १ ।।
सुखमय और तीन लोकके अग्र भागमें स्थित सिद्धरूपसे वन्दनीय ऐसे इन वीर जिनको मस्तकसे प्रणाम करके स्थितिग नामक अधिकारका कथन करता हूँ ।।२।।
* गाथामें जो 'हिदियं' पद है उसका विशेष व्याख्यान करते हैं।
$ ५०७. इसके आगे अर्थात् मूल गाथामें आये हुए 'झीणमझीणं' पदकी व्याख्याके बाद मूल गाथाके अन्तिम चरणमें जो 'हिदियं पद है और जिसके अन्तमें आये हुए 'वा' पदसे सांगोपांग सब प्ररूपणाका सूचन होता है, अब उसके विशेष व्याख्यानका अधिकार है यह इस सूत्रका तात्पर्यार्थ है।
शंका-'हिदियं' इस पदका क्या अर्थ है ?
समाधान–'ट्ठिदियं' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ स्थितिग अर्थात् स्थितिको प्राप्त हुए कर्मपरमाणु होता है।
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