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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
३७९ त्ति । हेटिमासेसकम्महिदि अब्भंतरसंचिदसव्वदव्वस्स जहाणिसेओ अहियारहिदीए किण्ण लब्भइ त्ति भणिदे ण, ओकड्डक्कड्डणाहि तस्स गिल्लेवणसंभवेण णिरंतरत्थित्तणियमाभावादो। तं जहा–एयसपयम्मि बद्धकम्मपोग्गलदव्वं णिच्छएणासंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तणिसेएसु पिरंतरमवहाणं लहइ । पुणो तदुवरिमगोवुच्छप्पहुडि ओकड्डु कड्डणवसेण एयपरमाणुणा विणा सुद्धा होऊण गच्छइ । एवं जिल्लेविदे अहियारगोवुच्छाए उवरि तदित्थसमयपबद्धणिसेओ जहाणिसेयणिसेयसरूवेण ण लब्भइ, तेण असंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणवेदयकालस्सेव गहणं कयं । अदो चेय णियमा अत्थि त्ति परूविदं, अणियमेण हेहिमाणं पि सांतरसरूवेण संभवविरोहाभावादो। किमेसो अधाणिसेयसंचयकालो बहुओ आहो एयगुणहाणिहाणंतरमिदि ? एसो कालो असंखेज्जगुणो, एत्थासंखेजगुणहाणीणमुवलंभादो । तम्हा एत्तियमेत्तकालभंतरसंचओ अप्पहाणीकयहेटिमसमयपबद्धो णिरुद्धहिदीए जहाणिसेयसरूवेण णियमा अस्थि त्ति सिद्धं ।
शंका-पीछेकी सब कर्मस्थितियोंके भीतर संचित हुए द्रव्यका यथानिषेक अधिकृत स्थितिमें क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा उक्त द्रव्यका अभाव सम्भव है, इसलिये उसका निरन्तर अस्तित्व पाये जानेका कोई नियम नहीं है। खुलासा इस प्रकार हैएक समयमें जो पुद्गल द्रव्य बँधता है उसका नियमसे पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमलप्रमाण निषेकोंमें निरन्तर अवस्थान पाया जाता है। फिर इससे उपरिम गोपुच्छासे लेकर एक परमाणुके बिना शेष सब द्रव्यका अपकर्षण-उत्कर्षणके कारण अभाव हो जाता है । इस प्रकार उसका अभाव हो जाने पर अधिकृत गोपुच्छामें वहाँके समयप्रबद्धका निषेक यथानिषेकरूपसे नहीं पाया जाता है, इसलिये यहाँ पर पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण वेदककालका ही ग्रहण किया है। और इसीलिये सूत्रमें 'णियमा अत्थि' यह कहा है, क्योंकि अनियमसे पीछेके समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणुओंका भी यहाँ सान्तररूपसे सद्भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता।
शंका-क्या यह यथानिषेकका संचय काल बहुत है या एक गुणहानिस्थानान्तरप्रमाण है ?
समाधान-यह काल एक गुणहानिस्थानान्तरके कालसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि यहाँ असंख्यात गुणहानियाँ पाई जाती हैं।
इसलिये इतने कालके भीतर जो संचय होता है वह विवक्षित स्थितिमें यथानिषेकरूपसे नियमसे है यह बात सिद्ध हुई। किन्तु यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि इसमें इस कालसे पीछेके समयप्रबद्धोंके द्रव्यको गौण कर दिया है। अर्थात् उस द्रव्यका यहाँ पाया जाना यद्यपि सम्भव तो है पर नियम नहीं, इसलिये उसकी विवक्षा नहीं की है।
विशेषार्थ- प्रत्येक कर्म बंधनेके बाद वेदककाल तक तो नियमसे पाया जाता है। उसके बाद उसके पाये जानेका कोई नियम नहीं है। वेदककाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता
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