SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अप्पदरकालम्मि झिज्जमाणदव्वादो भुजगारकालम्मि गुणिदकम्मंसियविसयम्मि संचिजमाणदव्वं कत्थ वि असंखेज्जभागभहियं, कत्थ वि संखेजभागभहियं, कत्थ वि संखेज्जगुणब्भहियं, कत्थ वि असंखेज्जगुणमत्थि । तेण तत्थ गुणिदकम्मंसियकालो कम्महिदिमेत्तो। खविदकम्मंसियम्मि पुण भुजगारकालम्मि संचिददव्वादो अप्पदरकालम्मि झीणदव्वमसंखे०भागब्भहियं, कत्थ वि संखेजभागभहियं संखेज्जगुण भहियमसंखेजगुणब्भहियं च । एदं कुदो णव्वदे ? कम्महिदिमेत्तखविदकम्मंसियकालपदुप्पायणादो। उच्चारणाए पुण गुणिदकम्मंसियम्मि अप्पदरकालम्मि झीणदव्वादो भुजगारकालम्मि संचिददव्वं विसेसाहियं चेव । एदं कुदो णव्वदे ? लोभसंजलणस्स जहण्णदव्वादो वेछावहिकालभतरे पंचिंदियजोगेण संचिदं पि लोभसंजलणदव्वं विसेसाहियं चेवे ति वयणादो। जदि एवं तो उच्चारणाए कम्महिदिमेत्तो गुणिदकम्मंसियकालो किम परूविदो ? भुजगारकालम्मि सगअसंखेजदिभागमेत्तदव्वसंगहण । ___ १००. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णपदेसविहत्तिओ मिच्छ०-पण्णारसक०-तिण्णि عرعر عرعر عرععهم عرعر عرعر -rammar गुणितकर्माशिकके विषयरूप भुजगार कालके भीतर सञ्चित हुआ द्रव्य कहीं पर असंख्यातवें भाग अधिक है, कहीं पर संख्यातवें भाग अधिक है, कहीं पर संख्यातगुणा अधिक है और कहीं पर असंख्यातगुणा अधिक है। इस लिए वहाँ गुणितकांशिकका काल कमस्थितिप्रमाण है । परन्तु क्षपितकांशिकके भुजगार कालके भीतर सञ्चित हुए द्रव्यसे अल्पतर कालके भीतर क्षयको प्राप्त होनेवाला द्रव्य कहीं पर असंख्यातवें भाग अधिक है, कहीं पर संख्यातवें भाग अधिक है, कहीं पर संख्यातगुणा अधिक है और कहीं पर असंख्यातगुणा अधिक है। शंका--यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान--क्षपितकर्माशिकका काल कर्मस्थितिप्रमाण कहा है। उससे जाना जाता है। परन्तु उच्चारणाके अनुसार गुणितकांशिकसम्बन्धी अल्पतरकालके भीतर क्षयको प्राप्त हुए द्रव्यसे भुजगारकालके भीतर सञ्चित हुआ द्रव्य विशेष अधिक ही है । शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-लोभसंज्वलनके जघन्य द्रव्यसे दो छयासठ सागर कालके भीतर पञ्चेन्द्रिय जीवके योग द्वारा सञ्चित हुआ भी लोभसंज्वलनका द्रव्य विशेष अधिक ही है इस वचनसे जाना जाता है। ... शंका-यदि ऐसा है तो उच्चारणामें गुणितकर्माशिकका काल कर्मस्थितिप्रमाण किसलिए कहा है ? समाधान- भुजगार कालके भीतर अपना असंख्यातवाँ भाग अधिक द्रव्यका संग्रह करनेके लिए कहा है। ६१००. सम्यग्यिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy