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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सण्णियासपरूवणा ६५ वेद० णियमा अज. असंखे गुणन्भहिया । लोभसंज०-छण्णोक. णियमा अज. असंखे०भागब्भहिया। सम्मत्त० णियमा अविहत्तिओ । सम्मत्तस्स जहण्णपदेसविहत्तिश्रो मिच्छ०-सम्मामि०-पण्णारसक०-तिण्णिवेदाणं णियमा अज० असंखे०गुणब्भहिया । लोभसंज०-छण्णोक० णियमा अज० असंखे०भागन्महि । कारणं पुव्वं परविदं तिणेह परूविज्जदे।। १०१. अणंताणु०कोध० जहण्णपदे० माणे-माया-लोभाणं णियमा तं तु विहाणपदिदा अणंतभागब्भहि० असंखे०भागब्भहिया वा । मिच्छ० सम्म०सम्मामि०-एक्कारसक०-तिण्णिवेदाणं णियमा अज. असंखे० भागभहिया । लोभसंज०-छण्णोक. णियमा अज० असंखे०भागब्भहिया । एवं' माण-माया-लोभाणं । अपञ्चक्खाणकोध. जह० पदेसविहत्तिओ सत्तकसायाणं णियमा विहत्तिओ। तं तु वेढाणपदिदा अणंतभागभहिया असंखे०भागन्भहिया । तिण्णिसंजल-तिण्णिवेद. णियमा अज० असंखे०गुणब्भहि० । लोभसंज०-छण्णोक० णियमा अर्ज० असंखे०तीन वेदोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। लोभसंज्वलन और छह नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। तथा वह सम्यक्त्वका नियमसे अविभक्तिवाला होता है। सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय और तीन वेदोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है । लोभसंज्वलन और छह नोकषायोंकी नियमसे . अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। कारण पहले कह आये हैं, इसलिए यहाँ उसका कथन नहीं करते। ६१०१. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मान, माया और लोभकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और तीन वेदोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। लोभसंज्वलन और छह नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार मान, माया और लोभकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सात कषायोंकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति या अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। तीन संज्वलन और तीन वेदोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। लोभसंज्वलन और छह नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेश विभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। वह शेष प्रकृतियोंका नियमसे १. श्रा०प्रती 'असंखे भागब्भहिया वा। एवं' इति पाठः । २. मा०प्रतौ 'छण्णोक० अज.' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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