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________________ ४११ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्त भजिदेयसमयपबद्धपमाणत्तदसणादो। एवं रूवूण-दुरूवूणादिकमेण जहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीसु परिहीयमाणासु संखेजभागवड्डीए गंतूण जत्थुद्देसे एयगुणहाणिआयामो हिदिवंधो जादो तत्थुद्देसे गच्छमाणदव्वं तदणंतरहेहिमसमयसंचयं च पेक्वियूण संपहियसंचओ दुगुणो जादो। चिराणसंचयं पेक्खियूण पुण तक्काले वि असंखेज्जभागवडी चेव । पुणो पढमगुणहाणिं तिणि खंडाणि काऊण तत्थ हेहिमदोखंडाणि मोत्तूण उवरिममेयखंड सेसगुणहाणीओ च ओसरिय बधमाणस्स तिगुणो संचओ जादो । तं जहा-पढमगुणहाणीए विसेसहाणिमजोइय सव्वणिसेया सरिसा त्ति आयामेण तिण्णि खंडे काऊण तत्थेयखंडमवणिय पुध हवेयव्वं । पुणो विदियादिगुणहाणिदव्वं पि तावदियं चेव होदि त्ति तहेव तिणि भागे काऊण तत्थ तिभागं घेत्तण पुन्नमवणिय पुध पिदतिभागेण सह मेलाविदे ते वि वे-तिभागा जादा । एवमेदे तिण्णि वे-तिभागा एकदो मेलिदा तिगुणतं सिद्धं । अथवा दुगुणं सादिरेयमिदि वत्तव्यं । सुहुमहिदीए णिहालिन्जमाणे गुणहाणिअमेत्तविसेसाणं हीणत्तदंसणादो । एवमुवरि वि किंचूणतं जाणिय जोजेयव्वं । एवं गंतूण पढमगुणहाणि रूवाहियजहण्णपरित्तासंखेजमेत्तखंडाणि काऊण तत्थ हेहिमदोखंडाणि मोत्तणुवरिमसचखंडाणि संसगुणहाणीओ च प्रोसरिय बधमाणे गच्छमाणदव्वं तदणंतरहेहिमसंचयं च पेक्खिय असंखेजगुणवड्डीए आदी जादा । एत्तो प्पहुडि उवरि सव्वत्थ असंखेजदेने पर जो लब्ध आवे उतना देखा जाता है। इसप्रकार एक कम दो कम आदि के क्रमसे जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदप्रमाण गुणहानियोंके हीन होनेतक संख्यातभागवृद्धिसे जाकर जहाँ एक गुणहानियामप्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता है वहाँ व्ययको प्राप्त हुआ द्रव्य और अनन्तर नीचेके समयमें संचित हुआ द्रव्य इन दोनोंकी अपेक्षा वर्तमानकालीन संचय दूना हो जाता है। परन्तु पुराने सत्त्वकी अपेक्षा उस समय भी असंख्यातभागवृद्धि ही है। फिर प्रथम गुणहानिके तीन खण्ड करके उनमेंसे नीचेके दो खण्ड छोड़कर ऊपरके एक खंड और शेष गुणहानियोंको घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके तिगुना संचय हो जाता है । यथा-प्रथमगुणहानिमें जो उत्तरोत्तर निषेकोंकी विशेष हानि होती गई है इसकी गिनती नहीं करके सब निषेक समान हैं ऐसा मानकर उनके समान तीन खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डको निकालकर अलग स्थापित कर दे। फिर द्वितीयादि गुणहानियोंका द्रव्य भी उतना ही होता है इसलिये उसीप्रकार तीन भाग करके उनमेंसे तीसरे भागको ग्रहण करके पूर्व में निकालकर पृथक स्थापित किये गये तीसरे भागमें मिला देनेपर वे भी दो बटे तीन भागप्रमाण हो इसप्रकार इन दो बटे तीन भागोंको एकत्रित करनेपर तिगुने हो जाते हैं इसलिये इस समय तिगुना संचय होता है यह बात सिद्ध हुई। अथवा साधिक दुगुना संचय होता है ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि सूहमदृष्टिसे अवलोकन करने पर गुणहानिके अर्धभागप्रमाण विशेषोंकी हानि देखी जाती है। इसीप्रकार आगे भी कुछ कमको जानकर उसकी योजना करते जाना चाहिये। इस प्रकार आगे जाकर प्रथम गुणहानिके एक अधिक जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण खण्ड करके उनसे नीचेके दो खण्डोंके सिवा ऊपरके सब खण्ड और शेष गुणहानियोंको घटाकर बन्ध करने पर व्ययको प्राप्त हुअा द्रव्य और अनन्तर नीचेके समयमें सञ्चित हुआ द्रव्य इन दोनोंकी अपेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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