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________________ ४१२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ गुणवड्डी चेव होऊण गच्छइ त्ति घेत्तव्यं । ६७७. संपहि चिराणसंचयं पेक्खियूणासंखेजभागवडीए अंतो कम्हि उद्देसे होइ त्ति भणिदे जहण्णपरित्तासंखेजेणोकड्डुक्कड्डणभागहारं खंडेयूण लद्धपमाणेण पढमगुणहाणि खंडिय तत्थ हेडिमदोखंडाणि मोत्तृणुवरिमासेसखंडाणि सेसगुणहाणीओ च हाइयूण बंधमाणस्स असंखेज्जभागवड्डीए चरिमवियप्पो होइ । तं कथमिदि भणिदे एयं पंचिंदियसमयपबद्ध ठविय पुणो एदस्स दिवडगुणहाणिभागहारं हेहदो ठविय उवरि जहण्णपरित्तासंखेजेणोवहिदोकडडुक्कड्डणभागहारे गुणयारसरूवेण ठविदे संपहियसंचओ आगच्छइ । चिराणसंचए पुण इच्छिज्जमाणे एयं पंचिंदियसमयपवद्धं ठविय पुणो एदस्स ओकड्डुक्कड्डणभागहारोवट्टिददिवगुणहाणिभागहारो ठवेयव्यो । एवं कदे चिराणसंचओ अधापवत्तकरणपढमसमयपडिबद्धो आगच्छइ । तेणासंखेजभागवडी एत्थ परिसमप्पइ त्ति पत्थि संदेहो । ६७८. संखेजभागवडिपारंभो कत्थ होइ त्ति पुच्छिदे उक्कस्ससंखेजोवट्टिदओकड्डुक्कडुगभागहारपमाणेग पढमगुणहाणि खंडिय तत्थ हेहिमदोखंडं मोत्तूण उपरिमसव्वखंडाणि सेसगुणहाणीओ ·च हाइयूण वधमाणे संखेजभागवड्डीए आदी होइ । एत्थोवट्टणं पुव्वं व काऊण सिस्साणं पबोहो कायन्यो । एत्तो प्पहुडि संखेज्जभागवड्डी चेव होऊण गच्छदि जाव ओकड्डुकडणभागहारस्स एगरूवं भागहारत्तेण असंख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ होता है। अब इससे आगे सर्वत्र असंख्यातगुणवृद्धिका ही क्रम चालू रहता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। ६७७. अब पुराने सञ्चयकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धिका अन्त किस स्थानमें होता है यह बतलाते हैं--जघन्य परीतासंख्यातसे अपकर्षण-उपकर्षण भागहारको भाजित करके जो लब्ध आवे उतने प्रथम गुणहानिके खण्ड करके उनमेंसे नीचेके दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके बाकीके सब खण्ड और शेष गुणहानियोंको घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके असंख्यातभागवृद्धिका अन्तिम विकल्प होता है। यह कैसे होता है अब इसी बातको बतलाते हैं-पंचेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको स्थापित करके नीचे इसके डेढ़ गुणहानिप्रमाण भागहारको स्थापित करनेपर और ऊपर जघन्य परीतासंख्यातसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारको गुणकाररूपपर स्थापित करनेसे वर्तमानकालीन संचय प्राप्त होता है। किन्तु पुराने सञ्चयको लानेकी इच्छासे पंचेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको स्थापित करके फिर इसका अपकर्षण-उत्कर्षणसे भाजित डेढ़ गुणहानिप्रमाण भागहार स्थापित करे। ऐसा करनेसे अधःप्रवृत्तकरणका प्रथम समयसम्बन्धी पुराना संचय प्राप्त होता है । अतः यहाँ असंख्यातभागवृद्धि समाप्त होती है इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। ६६७८. अब संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ कहाँपर होता है यह बतलाते हैं-प्रथम गुणहानिके उत्कृष्ट संख्यातसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण खण्ड करके उनमेंसे नीचेके दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके सब खण्ड और शेष गुणहानियोंको घटाकर बन्ध करनेपर संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होता है। यहाँपर पहलेके समान अपवर्तन करके शिष्योंको ज्ञान कराना चाहिये । अब इससे आगे अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका एक अङ्क भागहाररूपसे प्राप्त होनेतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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