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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं ४१३ चेट्टइ त्ति । पुणो तकाले पढमगुणहाणिमोकडडुक्कडणभागहारमेत्तखंडाणि काऊण तत्थ हेटिमदोखंडाणि मोत्तृणुवरिमसव्वखंडेहि सह सेसासेसगुणहाणीओ परिहाविय बंधमाणे संखेज्जगुणवड्डीए आदी जादा। तदो ओकड्डुक्कड्डणभागहारदुगुणमेत्तं पढमगुणहाणिं खंडिय तत्थ हेडिमदोखंडाणि मोत्तूण उवरिमासेसखंडेहि सह सेसगुणहाणीओ ओसरिय बधमाणे चिराणसंचएण सह तिगुणं संचओ होइ । एवं तिगुणचउग्गुणादिकमेण गंतूणुक्कस्ससंखेज्जगुणोकड्डुक्कड्डणभागहारमेत्ताणि पढमगुणहाणिखंडाणि काऊण तत्थ हेहिमदोखंडाणि परिवज्जिय उवरिमासेसखंडाणि सेसगुणहाणीओ च द्विदिपरिहाणिं करिय बंधमाणे असंखेजगुणवड्डीए आदी जादा । एत्तो पाए उवरि सव्वद्धा संखेज्जगुणवड्डीए चेव गच्छइ। एवं डिदिव धसहस्साणि बहूणि गंतूण तदो उवरिमसंचयं गहिदमिच्छिय ओवट्टणे ठविज्जमाणे एयं पंचिंदियसमयपबद्धं ठविय पुणो तम्मि असंखेज्जवस्सायामेण तकालियहिदिवधेण भागे हिदे एयगोवुच्छपमाणमागच्छइ । पुणो वि अंतोमुहुत्तकालं तं चेव हिदि बधइ त्ति अंतोमुहुत्तेण तम्मि ओवट्टिदे समयपबद्धभागहारो होइ । एवमोवट्टिय इमो संचओ पुध हवेयव्यो । ६७६. संपहि अण्णेगं हिदिबंधं बंधमाणो तदणंतरहेहिमबंधादो असंखेजगुणहीणं हेढदो ओसरइ । एत्थोवट्टणं पुव्वं व कायव्वं । णवरि पुबिल्लसंचयादो एस संचओ असंखेज्जगुणो होइ । इमं पि संचयदव्वं पुध हवेयव्वं । एवमसंखेज्ज संख्यातभागवृद्धिका ही क्रम चालू रहता है। फिर उस समय प्रथम गुणहानिके अपकर्षण-उत्कषण भागहारप्रमाण खण्ड करके उनमेंसे नीचेके दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके सब खण्डोंके साथ बाकीकी सब गुणहानियोंको घटाकर बन्ध करनेपर संख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ होता है। फिर प्रथम गुणहानिके अपकर्षण-उत्कर्षणसे दूने खण्ड करके उनमें से नीचे के दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके सब खण्डोंके साथ शेष गुणहानियोंको घटाकर बन्ध करनेपर पुराने सत्त्वके साथ तिगुना संचय होता है । इस प्रकार प्रथम गुणहानिके तिगुने और चौगुने आदिके क्रमसे आगे जाकर अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे उत्कृष्ट संख्यातगुणे खण्ड करके उनमेंसे नीचेके दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके सब खण्ड और शेष गुणहानिप्रमाण स्थितिको घटाकर बन्ध करनेपर असंख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ होता है। अब इससे आगे सर्वदा संख्यातगुणवृद्धिका की क्रम चालू रहता है। इस प्रकार हजारों स्थितिखण्डोंको बिताकर इससे ऊपरके सञ्चयको लानेकी इच्छासे भारहारके स्थापित करनेपर पंचेन्द्रियके एक समप्रबद्धको स्थापित करके फिर उसमें तत्काल बँधनेवाले असंख्यात बर्षप्रमाण स्थितिबन्धका भाग देनेपर एक गोपुच्छाका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर भी अन्तर्मुहूतकाल तक उसी स्थितिका बन्ध होता है, इसलिये उसमें अन्तर्मुहूर्तका भाग देनेपर जो लब्ध आवे वह समयप्रबद्धका भागहार होता है। इस प्रकार अपवर्तित करके इस सञ्चयको अलग स्थापित करना चाहिये। ६६७६. अब एक अन्य स्थितिबन्धको बाँधता हुआ इसके अनन्तरवर्ती नीचेके बन्धसे असंख्यातगुणे हीन नीचे जाकर बाँधता है । यहाँपर भी पहलेके समान अपवर्तन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वके संचयसे यह संचय असंख्यातगुणा होता है । इस सञ्चय द्रव्यको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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